श्री मद्द्यानन्द प्रकाश | Sri Madyanand Prakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डे पवीन चक्रने चंचलतासे चलकर उसे धूलिधूसर कर दिया है । उसके रंग रूप तकको बदल डाला है । पर क्या हुआ ? यह रत है ओर हमार ही विन्तामणि रख ह । हमारी पतृक सम्पत्ति ह। संशाधनके हाथोंके साथ इसे थो 'घो*कर स्वच्छ कर समा हमारा कतब्य कम है । जी-जीवनसे इसे बचाये रखना हमारा घर्म्म ह । आर्य्यावर्तीय सम्प्रदायेको, आययकि प्राचीन तत्त्वकों दूसरोंकी रृष्टिमें 'घटानेवाले समझते थे; उनका निश्चय था कि नवीन 'मत्तोंने, महन्तोंने ओर मरने पुरातन कालकी महत्तापर मिट्टी डाल दी है।उसकी विज्युद्धताकों मिश्रित कर दिया है । जब तक मतोंको मिटाया न जाय आययोंमिं परम धघर्स्मका होना कठिन है । महाराज सावेजनिक हितके लिए ही हाधमें तकका तार लेकर खण्डनके भूखण्डमें उतरे थे । रोगी के फोड़े-फुन्सियोंका जब तक छेदन ने किया जाय उसका स्वस्थ होना दुष्कर है । खेतमेंसे जब तक झाड़ झंखाड़ उखाढ़ कर, घास फूस निकाठ कर उसका दोघन न किया जाय उसमें खेती का सुफलित होना असम्भरव हे। ऐसे ही किसी देश ओर जातिमेंसें जब तक करीतियोंको मे दर किया जाय और उसके आचार-विचारका संद्याघन न हो तबतक उसका उन्नतिके उत्तम सोपानपर पदापण करना महा कठिन हे। सुघारका काम सर्वेध्रिय सो नहीं परन्तु सावजनिक हितसे पूर्ण अवस्य हुआ करता है । खण्डन खड्डका अवलम्बन करते समय श्री मह्दा रा जके महान्‌ हदयमें पैर-हित परिपूण हो रहा धा-इसका परिपुष्ट प्रमाण उनका अपना ही लेख हे । स्वामी जी लिखते हैं “'यथपि आजकल बहतसे विद्वान प्रत्येक मतसें पाये जाते हैं, (परन्तु यदि) वे पक्षपात छौडकर सव-तंत्र सिद्धान्तको * स्वीकार करें, जो जो वातें सबके अनुकूल हैं जोर सघमे सत्य हं उनको श्रहण करके, आर जो बातें एक दूसरेसे विरुद्ध पाई जाती हैं उनको त्याग कर परस्पर प्रीतिसे चर्ते वर्तावें तों जगतूका पूंण हित ही जाय । विद्वानों के विरोघही से अविंद्वानोंमें विरोध बढ़ कर विधिध दुःखेंकी ब्राद्धि आर सुखोंकी हानि होती है । यह हानि स्वार्थी मनुष्यों को प्यारी हैं परन्तु इसने सर्घ साघारणको दुःख-सागरमें डुबो दिया । जो सज्जन सावेजनिक हितको लक्ष्यम घर कर काययमें प्रबृत्त होताई उसको विरोध स्वार्थी जन तत्परतासे करने कग जाते हैं । उसके मार्गमें भमेक प्रकारकी




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