स्वपनसिधी की खोज में | Swapansidhi Ki Khoj Me

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मैं इसे 'बोगापुस्तस्थारिणो' को उपाधि देता 1, मैं जि समय उरजपिनी का कप था श्र व पुरारिन, यद नुकस मो छोड़ा गया । दमारी झात्सा एफ हैं; स्जनकाल में उसके हो. माग बरडे सजनदार नें समय के प्रा मैं फेंक दिये श्रीर श्रनेठ श्रयतारी के बाद इस फ्र मिले । मेरी यह कल्पना केयल नुकरा ने रह गई, परनु दृढ़ घारणा में चुनी जाने लगी । इनमें में अनेक कल्पना वो मैने 'शिशु झने सर्दी” में शब्द शरीर दिया है । लीला श्रीर मैं बहुत दी चुटीला हेंसी-मजाम करतें थे । उसके श्रच्छे अध्ययन के वारण दस विधिघ िपर्यों पर बातें उर सस्ते थे । मेरी श्राकाशाएँ: वह समक जाती श्रौर उनमें टिलचस्पी लेगी थी । सदयोगी के तिना शमी तम् मर हृदय तडपता था, श्र उसमें झपरियित शक्ति श्रौर उ साद वा संचार दुआ 1 उप समग्र मेरी शवोरता बोर गये का पार नहीं था, इसलिए, मैं कई बार जिद जाता. शरीर मुें श्रतुकल बरतें के लिए यह निद्वोदी फिलु प्रेम विर्श सुपेतों मेगीरथ प्रयन बरतने लगी । अपने प्रिय श्रामा वो' पत्र लियकर बे देलो अकेली उसे समनाती डर. प्रिप आत्मा ** शुष्क जीवन से तू धक्त गया था । एक संबाढ़ी 'पार्मा के हदुप में कुछ स्थान प्राप्त करके तुफे यह शुदभ्रता मुला देनो थी । परी यद इच्छा पूर्ण हुई । यह घात्मा तेरी सवंस्व ईै चौर तू उसका स्वस्व है, यह वात सब नहीं, तय भी तू तो घह मानता ही हैं । यह यात मूड साबित हो, उससे पहले तू सर मिटना' * * यदद भी स्पदर्शी थी । सू जोवन के प्रति विद्रौद करता है। साथ दो तुफे जीवन- स्ाधी की श्ावस्यकता है । अपने पुडाडीपन का सौरच सू फिर नहीं ना सहता भौर चढ़ फिर लाएगा सो हू मरणाससन दो ज्ञापगा। सइपाए के दिना तू जी नहीं सझता 'ौर सदचार से सुमे दुश् होता है। रद




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