धर्मशर्माभ्युदय | Dharmasharmabhyudaya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
434
श्रेणी :
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No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना है
प्रभावित है भतः उसके कर्ता आचार्य सोमदेव आर “आचार्य वीरनन्दीसे परवर्ती है पूर्ववर्ती नहीं । जब कि
* “कर्पूरमंजरी' के कर्ता राजशेखर और “श्रोहपंचरित' के कर्ता बाणमट्ट पूरववर्ता है। “जीवन्वरचम्पू की)
प्रस्तावनामें घर्मशर्माश्युदय तथा जीवन्वरचम्पूके तुठनात्मक उद्धरण देकर मैंने यह सिद्ध करनेका प्रयास
किया है कि धर्मशर्माम्युदयके कर्ता हुरिचन्द्र हो 'जीवन्घरचम्पू” के कर्ता है । जोवन्घरचम्पूका कथानक
जहां वादीभुसिहसुरिकी क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिले लिया गया हैँ वहाँ गुणभद्राचार्यके उत्तर-
पुराणसे भी वह प्रभावित है अतः हरिचन्द्र गुणमद्रसे परवर्ती है । साथ हो इसमें श्रावकके जो आठ मृूखछ
गुणोका वर्णन किया गया हैं वह यशास्तिलकचम्पूके रचयिता सोमदेवके मतानुसार है इसक्िए सोमरेवसे
परवर्ती है । सोमदेवने यशस्तिलकचम्पूकी रचना १०१६ विं० सं० में पूर्ण की है ।, घर्मशर्माम्युदयकी; एक
प्रति पादणके संघवी पाडाके पुस्तक भंडारमें दि० सं० १२८७ की छिंखो विद्यमान है इससे यह निश्चय
होता है कि महाकवि हरिचन्द्र उक्त संवत्से पूर्ववर्ती है। इस तरह पूर्व और पर अवधियोपर विचार करनेसे
जान पड़ता है कि हरिचन्द्र ११०१२ शताव्दीके विद्वानु है । घर्मशर्मास्युदयपर कालिदासके रघुवश, भारविके
किराताजुंनीय और माघके शिशुपाल वधकी शैलीका प्रभाव है, इसका आगे विचार किया जावेगा ।
सहाकबि हरिचन्द्रको रचनाएं
महाकविं हरिचिन्द्र द्वारा रचित प्र्थोमें घर्मशर्माम्युदय उनका निर्धात्त ग्रत्य है। 'जीवत्थरचम्प के
विषयमे मादरणीय स्व ० प्रेमीजोका खयाल था कि यह किसो दूधरे कविकी रचना है पर दोनोंके तुलनात्मक
अष्ययनसे सिद्ध होता है कि दोनों ग्रन्थोके रचयिता एक हो हरिचन्द्र है। आर्छ विद्वानु डाँ० कीथने भी
हरिचन्द्रको ही जीवन्घरचम्पूका कर्ता माना है । घर्मशर्माम्युदय पाठकोके हाथमें है और जोवन्घरचम्पू मो
प्रकाशित हो चुका है। वाह्दत्रमें जीवन्घरचम्पूको रचनासे कविने बडा ' कोशल दिखाया हैँ. । भलंकारकी
पुर और. कोमछूकान्तपदावली वरबस' पाठकरे भनको अपनों ओर ओऊुष्ट कर लेती है ।
'चर्मघर्माम्युदयका काव्य-वेभव
पण्डितराज जगन्नाथने काव्यके प्राचीन-प्राचीनतर लक्षणोंका समन्वय करते हुए अपने रसगज्ञाघर-
में काव्यका लक्षण लिखा है--'रमणीयाथप्रतिपादकः शब्दः कान्यस --रमणोय शर्थका प्रतिपादन करनेवाला
शाब्दसमूहू काव्य है। वह रमणीयता चाहे अलकारसे प्रकट हो, चाहे भमिषा, लक्षणा था व्यंजना से ।
- मात्र सुन्दर शब्दोसे या मात्र सुन्दर अथसे कान्य, काव्य नहीं कहलाता, किन्तु दोतोंके संयोगते ही काव्य,
काव्य कहलाता है। महाकवि हरिचर्दरने धर्मशर्माम्युदयक अन्दर दाव्द और अं दोनोको बड़ी सुन्दरताके
साथ संजोया है । वे लिखते है-- ९
“मे ही सुन्दर अर्थ कविंके हृदयमें विद्यमातत रहे परन्तु थयोग्य शब्दोंके बिना बहू रचतामें चतुर
नही हो सकता । जे कि कुत्ताको गहरेसे गहरे पाचीमें भी खड़ा कर दिया जावे पर जब भी वह पानी
पीवेगा तब जीभसे चाँट-चाँट कर ही पीवेगा । अन्य प्रंकारसे उसे पीना आता ही नहीं हैं ।” (१1१४)
इसी प्रकार सुन्दर अथंते रहित शब्दावलो विद्वानोके मतको आनन्दित नहीं कर सकती । जैमे कि
थूच्रसे झरती हुई दूधकी घारा नयनामिराम होनेपर भो मतुष्योके लिए रुचिकर नहीं होती । ( ११५ )
शब्द और र्थके सन्दर्भते परिपूर्ण वाणी ही वास्तवमें वाणी हू थर बह बड़े पुण्यसे किसो बिरछे
कंविको ही प्राप्त होती है । देखो न, चन्द्रमाको छोड अन्य किसीकी किरण अन्वकारको नष्ट करने बाली घर
लमृदको झराने वालो नही हूँ । सूर्यही किरणमें अन्धकारको नष्ट करनेकी शक्ति है पर भीषण आतापका भी
१, देखो, भारतीय ज्ञावपीठ वाराणसीसे प्रकाशित जोवन्घरचस्पूको प्रस्तावना पृष्ठ ३७-४० तक ।
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