श्रवकाचार भाग 1 | Shravakachar Vol I
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
162
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रावकाचार 1 [ ६६.
जीवका छघ्ररण-चेठना है । ' चतना लक्षणों जीव:
ऐसा छागम है । चेतना ज्ञान दरशनकों कहते हैं. भर्यात् जिसमें
जान दूशन दो चढ़ जीव है | छात्मा है | यद शीव संसारी अव-
स्थामें कर्ता है, भोक्ता है, भपने घरीरके बरावर है, सुर्गीक है
ओर सिंद अवस्थामें अमूर्ती, दै-शुरू ज्ञान झुद्ध दर्नमयों है !
जीव दो प्रकारके होते हे-सिद्ध और संप्ारी। सिख जीवों
परमात्मा कहते दें और वे समस्त कर्मासे रत अछ्टगुण सहित
होते हैं । संतारी नीव-घने प्रकार हैं । मामान्यतासे दो सेद
रूप ैं-त्रस गर स्थावर! दो इंद्रियसे थादि ठेकर पंचेट्रिंय परयेत
त्र्त हैं । थर जिनके एक शपशन (शरीर) इंद्रिय हो वे स्थावर
हें । इ्े भेद मभेद होनेसे संसारी नीव अनंत पकार हैं |
नीवकी पद़िचान सामान्य रीदिसे यदद है कि जिसके ज्ञान
हो-भो नानता हो, दशन हो-देखता हो | इर्द्रिंय हो ( घरीर,
नीम, नाक, आंख सौर फ्ान इनमें लगे हुए आत्म प्रदेश मिपसे
यह सच प्रकार ज्ञान कर सके उतको इंट्रिय कहते ईं ) लाये .
हो । इवासोधवाप्त हो गौर घरीर वचन मन ) हो बढ़
नीच है । जो क्रिया ( इलनचठन ) कर सक्ता दे, सुख दुःख
अनुभव कर सक्ता है, किप्ती शरीरके आाइर स्थिर रद सक्ता है,
इद्धिय सर मन द्वारा समस्त कार्य करता है, जन्म मरण रूप
पर्याय ( झवध्था, दालत ) चदरुता रहता है वह संसारी शीव है ।
जीव निंत्य दै |
नहुतसे भोले मनुष्य नीवकों नहीं मानते, यह उनका
मानना मिथ्या है । क्योंकि शरीरके सदर ऐसी शक्ति होना श्स-
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