जैनतत्त्वसार | Jainatatvasar

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Jainatatvasar by मुनि जिनविजय - Muni Jinvijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३--तृतीय-अधिकार । डसूत छात्मा सूते कर्मोको अरहण कर सकता है । रच... प्रश्न--जीव स्वयं अरूपी-झ्मूते हूं; तो फिर इन्घिय और रे ्चदस्त-पाद वगेरठकी सहाय दिना करमेंकका ग्रहण किनके. घ्परा कर सकता हें ? जब कोसी मनुष्यकों कोश चीज ल्लेनी देनी पमती हूं तो पहले उस चीजकों देख नान्न कर, पीड़े हाथ वगे- रटसे, लसे लेता देता हूं, झात्माकी अवस्था दंसी न ह्ोनेसे, वह कर्मेको ग्रहण करता हे यह कंसे माना जाय जत्तर--जगत्कतता-यह जगत इंश्वरने बनाया हूं, एऐसा-मानने चाले जिस तरह इश्वरको निरिन्घिय झाौर निराकार मानकर नी,झपनी झगम्य शक्तिघ्ारा वह नक्तोंकों देखता हु, प्राधनादि सुनता हूँ; पूजा- . दिकास्वीकार करता है छोर नक्तजनोंक पार्पोका नाश कर;चनका न झार करता दे; इत्यादि कीमोंका करने वाला मानते हु,तो उसी तरह, ऋमूत आर अरूपी झात्माकों नी अपने झपएव सामथ्य ओर स्त--




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