देव दर्शन | Dev-darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
210
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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वर घामिति वास 'ढ़ी बरसे, सुसकानि सुधा बनसार 'घनी ?
सखियानि के 'आानन-ई्दुछु है झे खियासि की बन्दूसिवार तनीं ।
कैसा सुन्दर 'झौंर स्वाभाविक चिन है। सीता की बिदा हो
रद्दी है। अपनी अपनी अटोरियां पर खड़ी हुई सिथिएा की
खुन्दुरियाँ चरात की लि९ा देख रही हैं। बचिताएँ समान
याफार की हैं। उनके मुख-मयझ्का से नेत्र-इन्दीवरों को बन्दूलवार
सी बँघी नायूम दोवी है । मदकिवि कालिदास ने भी इस भाव
पर रघुवश में लिखा हैः
अथ पथि गसयिर्वा कठूप्तरन्ये[पकार्य्ये
कतिचिद्चसिपाल: शर्वेरी: सनकलप: |
पुरमनिशद्ये।ध्यां सैथिलीद्शनानामू
कुचणथित्तभ बात तोचसेर्गचानामू ।।
यदि कालिदास के श्लोक और देव के ४९ के भाव की
पुखना की जाथ ता विदित्त होगा कि देव की रचना में जैसा
सौन्दय है, वैसा कालिदास की छर्ति में नहीं है ।
इसी प्रकार राभपर्द्र के घन वासानधि सशाप्त करके 'येाध्या
में पुनराभभन के समय कौशल्या का वखुंच देव ने किया है
कहां न होगा कि देव को जगब्जननी सिधिलानन्द्वी के शत
कितनी श्रद्धा थी, यद्यपि नॉस्तव में दंत हरिवश सस्थरदाय के
शिष्य होने के कारण वे ब्रजाघीश श्रीकृष्ण चन्द्र 'आन्टूकन्र एव
इपसावुनन्द्नी के उपासक थे
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