हिन्दी - गीता विज्ञान भाष्य भूमिका भाग - 2 | Hindi Geeta Vigyan Bhashya Bhumika Bhag - 2

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Hindi Geeta Vigyan Bhashya Bhumika Bhag - 2  by मोतीलाल शर्मा भारद्वाज - Motilal Sharma Bhardwaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाष्ययूमिका यह तो हुई व्यावददारिक क्षेत्र की बात, अब आत्मक्षेत्र पर दृष्टि डाखिए । अपने तक-युक्ति; बुद्धि आदि को एक ओर रख कर, “पाण्डित्यं निर्विद्य बास्येन तिष्ठासेद' इस औपनिषद आज्ञा को शिरोधाय्य कर, सर्वथा मूखं॑ बन कर; परमश्रद्धा-विश्वास के साथ हमें जहाँ आत्मोपयिक इश्वर भक्ति; धर्म्म, आदि का अज्ुगमन करना चाहिए था; वहां हमनें बुद्धिमानी का प्रवेश कर रक्‍्खा है । ईश्वर क्यों माना जाय ?. गज्ञास्नान से क्या छाभ ?. सन्ध्या क्यों करनी चाहिए ? शिखा धारण का क्या प्रयोजन ? सभी को मूत्तिदशन का समानाधि- कार क्यों नहीं ? यज्ञोपवीत पहिढे तो पहिना ही क्यों जाय ? यदि पहिना भी जाय, तो उसे कान पर क्यों टांगा जाय ? इत्यादिरूप से धम्मक्षेत्र में पदे पढे हम बुद्धिबाद का आश्रय ले रहे हैं। जहां 'क्यों” के प्रश्नमात्र से सहजजीबनोपयिक सहज श्रद्धा-विश्वास का उच्छेद्‌ हो जाता हैं, वहां अहनिश क्यों की परम्परा धारावाहिकरूप से प्रवाहित है। यह स्मरण रखने की बात है कि, मनुष्य खोई हुई सम्पत्ति अपने जीवन में दुबारा प्राप्त कर सकता है, परन्तु श्रद्धा-विश्वास जेसे अमूल्य धन का एकबार निकले बाद पुनः मिछना दुलंभ हो जाता है। भवानी-शक्कर की वन्दना में श्रद्धा-विश्वास ही मूलप्रतिष्ठा बने हुए हैं। जिन्हें कि हम अपनी बुद्धिमानी से सबथा खो चुके हैं, अथवा तो खोते जा रहे हैं । एक दूसरा उदाहरण छीजिए । एक ऐसा व्यक्ति; जिसकी इईश्वर-धम्म-परठोक आदि आत्मसम्पत्तियों में भी दृढ़ निश्ठा है; परन्तु साथ साथ वह देशहित के नाते अपने समाज की, तथा राष्ट्र की भी कुछ सेवा करना चाहता है। अपनी इस इच्छा को काय्यरूप में परिण्त करने के छिए, दूसरे शब्दों में राजनेतिक क्षेत्र में प्रवेश करने के छिए आगे बढ़े हुए इस घस्म॑ भीरू के सामने घम्म-सस्बन्धी कुछ अड्चनें उपस्थित हो जातीं हैं। यह सोचने छगता है कि; देशसेवा जहां मेरा एक आवश्यक कर्तव्य है, वहां धर्स्म रक्षा इससे भी कहीं आवश्यक है। उधर बवत्तमान राजनेतिक क्षेत्र में घम्म का कोई स्थान नहीं है । अथवा यह कह छीजिए कि; बत्तमान राजनेतिक प्राज्ण में इस श्रद्धाढु की घधम्मभावनाओं से विपरीत जाने- वालीं घम्म॑-परिभाषाएं ताण्डवनय कर रहीं हैं, जिनका अनलुगमन इस धर्मिष्ठ को अणमात्र भी अभीष्ट नहीं है। इन अड्चनों को सामने आया देख कर धर्मंभीरू, किन्तु देशहितेच्छ यह श्रद्धा किसी ऐसे महापुरुष की शरण में जाता है, जिसके प्रति ( व्यक्तिगतरूप से ) इसे यह विश्वास है कि; वह अवश्य ही कोई माध्यम निकाल देगा | 'सहापुरुष” शब्द मध्य में आ गया; अतः प्रचढित दृष्टिकोण के अनुसार इस शब्द की व्याख्या भी आवश्यक प्रतीत हुई । 'महापुरुष' का वर्तमान व्यावहारिक भाषा में अर्थ होता नगुदध




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