नीतिवाक्या मृत | Nitivakyamrit

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Nitivakyamrit by सुन्दरलाल शास्त्री - Sundarlal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ हानि, शोच ब गृहप्रवेश, व्यायामसे लाम, निद्रा-लक्षण,लाभ, स्वास्थ्यो पयोगी क्तब्य, स्नानका ददुदेश्य- लाभ-्रादि, आहार संवयी सिद्धान्त, सुखप्तिका उपाय, इन्द्रियोंको कमजोर करने चाला काय , ताजी हचासे लाभ, निरन्तर सेवन-ग्रोग्य चस्तु, सदा बैठने व शोकसे हानि, शरीररूप गूदकी शोभ', अविश्व- सनीय व्यक्ति, इंश्र स्वरूप व उसकी नाममाला ) ३२३-३३० 'मनियमित समयमें व विल्लस्थरते काय करनेमें क्षति, 'लात्मरक्ता, राज-कतव्य, राजसभा में प्रविष्ट होनेके 'झयोग्य व्यक्ति, विनय, रवय' देखरेख करने लायक कार्य, छुसंगतिका त्याग, दिंसाप्रधान काम- कीड़ाका निषेध, परस्त्रोके साथ मातृमगिनी-भाव, पृज्योंके प्रति कतंव्य, शत्रुस्थानसें प्रतरिष्ट होनेका चिपेष, रथ-म्रादि सवारी, अपरीक्षित स्थान आदिसें जानेका निषेध, आान्तव्य स्थान, उपाससाके योग्य पदाथे, कंठस्थ न करने लायक विद्या, राजकीय प्रस्थान, भोजन चस्त्रादिकी परीक्षा, कतेंड्य- सिद्धिशी बेला, भोजन-आदिका समय, इंश्वरभक्तिका असर, का्यसिद्धिके प्रतीक, गमन व प्रस्थान, इंश्वरोपासनाका समय, राज्ञाका लाप्यमंत्र,, भोजनका समय, शक्ति-द्दीनका कामोद्दीपफ झाहदार, त्याज्य स्त्री, योग्य प्रकृति चले दभ्पतियोंकके प्रणयकी सफलता, इन्द्रियोंको प्रसन्न रखनेके स्थान,उत्तम चशीकरण, उसका उपाय, मलमूत्रादिके चेग-निरोधसे हानि, विषयभोगके अयोग्य काल-ेत्र, कुतबधूके सेवनका अयोग्य समय, परस्त्री त्याग, नैतिक वेष-भूपाल आचरण, 'अपरीक्ित व्यक्ति या वस्तु राजगृहमें प्रवेश-आदिका निषेव सदष्टान्त तथा सभी पर विश्वाससे हानि रे३१-३३४ २६ सदाचार.समुद्देश-- ं २३६-३४४ अत्यधिक लोभ, 'घालस्य च विश्वाससे ज्षति,ब लिप्ठ शत्रू-कत आाक्रमणुसे बचाव, परदेश-गत पुरुपका दोप, श्रन्याय-वश प्रतिष्ठाद्दीन व्यक्तिकी हानि, व्याधि-पीड़ित व्यक्तिके कांये, धार्मिक मदर, बीमारकी श्रोपधि, भाग्य गराल्ली पुरुष, मूर्खोकि कारयं; भयकालीन कहेंगय, धनुधारी व तपरत्रीका कर्तव्य, कृनध्नताका दुष्परिशाम, दिंतकारक बचन, दृष्टोंके काय , लदमीसे बिमुख एव' वंशबृद्धिमें 'झसमथ पुरुप, उत्तम दान, उत्साइसे लाभ, सेवकके पापक्सका फल, दुःख का कारण, कुसंगरा त्याग चषणिक चित्ततालेका प्रेम, उत्तावलेका पराक्रम, शत्र ननिम्रहका उपाय एवं राजकीय अनुचित क्रोधसे हानि, रुदन व शोकसे हानि, निन्य पुरुष, स्रगं-च्युतका प्रतीक, यशस्वीकी प्रशंसा, ऐथ्वीतलका भाररुप, सुखप्राप्तिका उपाय (परोपकार), शरणागतके प्रति कतेच्य-झादि ३३६-२४१ शुणगान-शुन्य नरेश, छुटुम्य-संरक्षण, परस्त्री व परधनके संरक्तणका दुष्परिणास, 'अनरक्त सेवकके प्रति स्तरामी-कंब्य, त्य/जयसेव क, न्यायोचित द'डविधान, राजकतेव्य, वक्ताके वचन, व्यय, बेष-भूषा स्पा, काय-आरम्भ, सुखप्राप्विका उपाय, 'झघमपुरुप, मयांदा-पालन, दुराचार-सदाचारसे ानि-लाभ स्वे्र संदिग्ध व्यक्तिकी हानि, उत्तम भोज्य रसायन, पापियोंकी दत्त, पराधीन भोजन, निवासयोग्य देश, जन्मान्थ, ब्राह्मण, निःस्पूह, दुःखका कारण, उच्चपदकी प्राप्ति, सच्चा छाभूषण, राजमेत्री, दुष्ट 'ोर याचकों प्रति कतंव्य, तिरथेक स्त्रामी,राजकीय सत्ययश्ञ तथा सं न्य-शक्तिका सदुपयोग ३४९-३४५ २७ व्यवहार-सपद्देश-- २४६-३४७ मनुष्योंका दृढ़ वन्घन, अनिवाय पालन पोषणके योग्य व्यक्ति, तीथ॑-सेवाका फल; तीथ - चासियोंकी प्रकृति, निन्य स्वामी, सेवक, मित्र, स्त्री, देश, बन्धु, गदस्थ, दान, आहार, प्रेम, हा




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