अहिंसा दिग्दर्शन | Ahinsha Dig Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहदमू शान्तमूर्तिश्रीवृद्धचन्द्रगुरुम्पो नमः । अहिंसादिगूद्शन । नत्वा कृपानदीना्थ जगदुद्धारकारकम्‌ । अदिंसाधमंदेष्टारं महावीर जगदुरुम्‌ ॥ १ ॥ मुनीशे सवेशाखरज्ञ दृद्धिचन्द्रं गुरुं तथा । समरहप्व्या दयाधमेव्याख्यानं क्रियते मया ॥ २ ॥। अनादि काल से जो इस संसार में प्राणीमात्र नये नये जन्मों को अहण करके जन्म, जरा, मरणादि असथ दु्ग्सों से दुःखित होते है उसका मूठ कारण कर्म से अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ नहीं है । इसकछिए समस्त दर्शन ( शाख्र ) कारों ने उन कर्मों को नाश करने के ठिए शाखरद्वारा जितने उपाय चतठाये हैं, उन उपायों में सामा- न्यघमेरूप-अर्हिसा, सत्य, अस्तेय, श्रह्मलचये, निस्प्रहृत्व, परोपकार, दानशाला, कन्याशाला, पशुशाला, विधवा55श्रम, अनाथाश्रमादि सभी दर्शनवारलों को अभिमत हैं; किन्ठु॒ विशेषधर्मरूप-स्नान स- न्ध्यादि उपाय में विभिन्न मत है, अत एव यहाँ विशेषध्म की चर्चा न करके केवल सामान्यधर्म के संबन्ध में विवेचना करनाही लेखक का सुख्य उद्दे्य है और उसमें भी सर्वदशेनवाठों की अत्यन्तप्रिया दयादेवी का ही अपनी बुद्धिके अनुसार वर्णन करने की इच्छा है। उसीको आक्षेपरहित पूर्ण करने के ठिए लेखक की प्रवृत्ति है । दया का स्वरूप-लोकव्यवहारद्वारा, अनुभवद्गारा और शाख्रद्वारा लिखा जायगा; जिसमें प्रथम लोकव्यवहार से यदि विचार करें तो माद्मम डोता है कि जगत्‌ के समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में दया का अवश्यही संचार है; अर्थात्‌ दुबैठ जीव पर यदि कोई बलवान जीव लव




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