कैरली साहित्य दर्शन | Kairali Sahitya Drshan

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काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

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माधव पणिक्कर - Madhav Panikkar

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रत्नमयी देवी - Ratnamayi Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रशस्ति हिन्दो पाठकों को “करली साहित्य-दर्शन' का परिचय कराते हुए मु हुषें होता है । इसकी लेखिका श्रीमती रत्नमयीदेवी दीक्षित सलया- लम्‌ श्रौर हिन्दी दोनों भाषाओं के साहित्य की विदुषी हैं श्रौर वे झपनी स्वेच्छा-स्वीकृत भाषा के पाठकों को अपनी सातृभाष 1 के साहित्य का परिचय देने के लिए सर्वेथा योग्य हैं । मलयालम, यद्यपि उसके बोलने बालों की संख्या केवल एक करोड़ चालीस लाख ही है; भारत की एक सर्वाधिक समद्ध श्रौर विकसित _ भाषा है । उसकी परंपरा लगभग एक हजार वर्ष से झ्रखंड है श्रौर इसके बहुत पहले, ईसा को चौथी शताब्दी में हो, उसने दक्षिण की भाषाश्रों सें श्रपना स्थान सहत्वपुण बना लिया था । पर्द्रहवीं दाताब्दी के प्रारंभिक भाग में रचित संस्कृत ग्रन्थ “लीलातिलकम' को देखने से सलयालम्‌ साहित्य श्रौर भाषा की प्राचीनता का स्पष्ट बोध हो जाता है। इस ग्रन्थ सें मलयालम की 'मणि-प्रवाल' बोली का विवेचन किया गया है । इसके पहले की भी कुछ कृतियाँ पुराने ग्रव्थालयों से खोजकर प्रकाशित फी गई हूं । वे तेरहवीं श्रौर चौदहवीं शताब्दियों की हूं । उनसे मालूम होता है कि सलयालम्‌ कम-से-कम दसवीं दाताब्दी में तो संस्कृत के प्रचुर सम्मिश्रण से एक श्रीसम्पन्न श्रौर समर्थ भाषा बन ही चुकी थी । सलयालम्‌ का मध्यकालीन साहित्य मुख्यतः संस्कृत ग्रस्थों के श्रनु- वाद श्रौर श्रनुकरणों के रूप में विकसित हुभ्रा । यह एक महत्व की बात है कि 'भगवद्‌गीता' के जो श्रनुवाद श्रत्य भाषाओं में हुए उनमें सलया- लम्‌ श्रचुवाद शायद पहुला था 1 यह श्रनुवाद पन्द्रहवीं दाताब्दी में निरणं माधव परिणक्कर ने किया था । परन्तु इस काल में रामायण, महाभारत श्रौर पुराणों के जो सुन्दर श्रनुवाद हुए, उनके श्रतिरिक्त संस्कृत के श्रतुक-




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