सूक्ति त्रिवेणी | Sukti Triveni

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Sukti Triveni   by उपाध्याय अमर मुनि - Upadhyaya Amar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अधिक विस्तार न हो, इसलिए यहाँ सिफ सकेत कर रहा हूँ । शेप पाठक स्वय तलना कर सकते है, भौर साथ ही यथा प्रसंग अन्यान्य स्यलो का मनुसघान भी । तुलना की हप्टि से कुछ स्थल दिए जा रहे हे-- श्रप्पा मित्तममित्त च। (जन घारा ११५1११४) ग्रतता हि श्र्तनों नाथो । (वौद्ध घारा ५४1३२) ्रात्मव ह्मात्मन: वन्घुरात्मेव रिपुरात्मन: । (वैदिक घारा २७२४३) जो सहस्सं सहस्स्साण सगामे दुज्जए जिए । (जन घारा २०८६०) यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने । (वौद्ध घारा ५१1२१) जरा जाव न घम्मं समाचरे । (जन घारा ६०1५३) यावदेव भवेत्‌ कल्पस्तावच्छ या समाचरेत्‌ । (वदिक घारा २४५०1४६) सुव्वए कम्मइ दिवं । (जन घारा १०४४३) रोहान्‌ रुरुहुमेंघ्यास. । (वैदिक घारा ११८।४४) श्रन्नाणी कि काही ? (जन धारा ८४1१२) कथा विधात्यप्रचेता । (वेदिक घारा १०1३७) यद्यपि मैं इस विचार का आाग्रह नहीं करता कि सुक्तित्रिवेणी का यह सक नन अपने आप मे पूर्ण है । बहुत से ऐसे सुभापित, जो मेरी हष्टि मे अभी




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