परमार्थ पत्रावली | Parmarth Patravali
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
241
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परमाथ-पत्राचली द
यही साक्षात् परम धर्म है, इसके अतिरिक्त अन्य खब उपचर्म
कहे जाते हैं ।
केवलसात्र उनकी सेवासे ही मनुष्य परम पदकी प्राप्ति कर
सकता है । श्रीमजुमद्दाराजने कद्दा है कि बड़प्पनकी दृष्टिसे दस
उपाध्यायोंस आचाय॑ और सो आचायोंसे पिता और हजार
पितामासे माता अधिक है ( मनुरुखति २। १४५ ) । आपको
अपने पिताजीकी सेवाका अवसर मिला है, इसे आप अपते-
पर इश्वरकी अत्यन्त दया समझें । ठकवे-जैसी कठिन बीमारीखे
लाचार झुए पिताकी सेवा तो बदुत ऊँची है । यदि किसी
दूखरे साधारण दीन व्यक्तिकी भी सेवा करनेका अवसर प्राप्त
हो जाय तो उसे अपना परम सोभाग्य समझना चाहिये ।
पिताजी कठिन-से-कठिन शब्द भी कहें तो भी आपको तनिक भी
विचार नहीं करना चाहिये ! आप अपने बालकपनके दिनोंको
याद करें, जव कि तरह-तरददकी बातोंसे आप अपने साता-पिताकों
तंग किया करते थे और वे आपको अवोध दिदु समझकर कुछ
भी ध्यान नहीं देते थे । जैसे आपके व्यवहारको उन्होंने
उस समय प्रेमपूवक सह; वैसे ही अब आपको प्रेमसे सखहना
चाहिये । यह आपका कर्तव्य है ।
यदि आपको मेरी चातपर विश्वास दो तो यह बात
निर्दिवाद मान ढेनी चाहिये कि केवल माता-पिताकी सेवासे
मचुप्य भगवानकों पा सकता है । थाते इतनी ही है कि सेवा
सच्चे भावसे हो, केवल मगवत्पीत्यर्थ निप्कामभावसे हो ओर
चढ़ी घसन्नताके साथ हो । अवतक आपका कल्याण हो जाना
चाहिये था; किंतु न दोनेमें यही कारण मात्यूम पड़ता है कि
आपका अपने पिताजीके प्रति डुर्भाव है, आपको उनका व्यवहार:
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