परमार्थ पत्रावली | Parmarth Patravali

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Parmarth Patravali by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परमाथ-पत्राचली द यही साक्षात्‌ परम धर्म है, इसके अतिरिक्त अन्य खब उपचर्म कहे जाते हैं । केवलसात्र उनकी सेवासे ही मनुष्य परम पदकी प्राप्ति कर सकता है । श्रीमजुमद्दाराजने कद्दा है कि बड़प्पनकी दृष्टिसे दस उपाध्यायोंस आचाय॑ और सो आचायोंसे पिता और हजार पितामासे माता अधिक है ( मनुरुखति २। १४५ ) । आपको अपने पिताजीकी सेवाका अवसर मिला है, इसे आप अपते- पर इश्वरकी अत्यन्त दया समझें । ठकवे-जैसी कठिन बीमारीखे लाचार झुए पिताकी सेवा तो बदुत ऊँची है । यदि किसी दूखरे साधारण दीन व्यक्तिकी भी सेवा करनेका अवसर प्राप्त हो जाय तो उसे अपना परम सोभाग्य समझना चाहिये । पिताजी कठिन-से-कठिन शब्द भी कहें तो भी आपको तनिक भी विचार नहीं करना चाहिये ! आप अपने बालकपनके दिनोंको याद करें, जव कि तरह-तरददकी बातोंसे आप अपने साता-पिताकों तंग किया करते थे और वे आपको अवोध दिदु समझकर कुछ भी ध्यान नहीं देते थे । जैसे आपके व्यवहारको उन्होंने उस समय प्रेमपूवक सह; वैसे ही अब आपको प्रेमसे सखहना चाहिये । यह आपका कर्तव्य है । यदि आपको मेरी चातपर विश्वास दो तो यह बात निर्दिवाद मान ढेनी चाहिये कि केवल माता-पिताकी सेवासे मचुप्य भगवानकों पा सकता है । थाते इतनी ही है कि सेवा सच्चे भावसे हो, केवल मगवत्पीत्यर्थ निप्कामभावसे हो ओर चढ़ी घसन्नताके साथ हो । अवतक आपका कल्याण हो जाना चाहिये था; किंतु न दोनेमें यही कारण मात्यूम पड़ता है कि आपका अपने पिताजीके प्रति डुर्भाव है, आपको उनका व्यवहार:




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