जैन ग्रंथावली भाग - 3 | Jain Pathawali (Vol - III)
लेखक :
चंद्रभूषण मणि त्रिपाठी - Chandrabhushan Mani Tripathi,
पं. शोभाचंद्र जी भारिल्ल - Pt. Shobha Chandra JI Bharilla,
बदरी नारायण शुक्ल - Badri narayan Shukl
पं. शोभाचंद्र जी भारिल्ल - Pt. Shobha Chandra JI Bharilla,
बदरी नारायण शुक्ल - Badri narayan Shukl
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
234
श्रेणी :
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चंद्रभूषण मणि त्रिपाठी - Chandrabhushan Mani Tripathi
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पं. शोभाचंद्र जी भारिल्ल - Pt. Shobha Chandra JI Bharilla
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बदरी नारायण शुक्ल - Badri narayan Shukl
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जैन पाठावली ) ः (११
मूल . अर्थ
पंचण्हूं अणुव्वयाणं- पाच 'अणुब्रतों का
तिण्हूं गुणव्वयाण- तीन 'गुणब्रतो का
चउण्ह सिवखावयाणं- चार 'दिक्ष'ब्रतो का
वारसचिहस्स सावगधस्मरस- बारह 'प्रकार के श्रावकघमं का
१ अणुन्रत अर्थात् छोटे ब्रत । साधुओ के ब्रत महाब्रत
कहलाते हैं, क्योकि उनमें हिंसा, असत्य आदि पापों की, किसी
भी प्रकार की छूट नहीं रहती-हिसा आदि का जीवनपर्येन्त पूर्ण
रूप से त्याग किया जाता है । मगर श्रावक-श्राविकाओ के ब्रत
एकदेशीय है, उनमे पापों का स्वेथा त्याग नही किन्तु मर्यादित
त्याग किया जाता है ।
२ वारह ब्रतो में से ६-७-८वाँ ब्रत तो गुणब्रत कहलाता है।
३ वारह न्रतो में से ६-१०-११-१२ वाँ ये चार
शिक्षात्रत कहलाते हैं ।
४ वारह ब्रतो के नाम-
(४) प्राणातिपातविरमण ब्रत-हिंसा काः त्याग करना ।
(२) मृपावाद . ,; - असत्य का ,/
(३) अदत्तादान ,» -चोरी का. ,,
(४) मैथुन +मथुन सेवन का,, (ब्रह्मचर्य पाछना )
(५) पर्म्रिहपरिमाणब्रत-परिग्रह की मर्यादा वरना ।
(६) दिक्परिमाणब्रत- दिशाओ में आने जाने की
मर्यादा करना ।
(७) उपभोग-परिभोगपरिमाणब्रत-एक वार उपयोग में
आने चाली तथा घारवार उपयोग
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