चारिका | Charika

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Charika  by शांतिप्रिय द्विवेदी - Shantipriy Dwivedi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about शांतिप्रिय द्विवेदी - Shantipriy Dwivedi

Add Infomation AboutShantipriy Dwivedi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
घर्म्मंचक-प्रवत्तत फ्ु कितने ही प्राकृतिक दुष्यो से आाँखो को आँजते हुए, विहार की भूमि (वोधिगया) से परिब्नाजक ने उत्तर प्रदेश की भूमि (सारनाथ) में प्रवेश किया । उसके उन पाँचो साथियों (पब्चवर्गीय भिक्षुओ ) ने उसे आते हुए दर से देखा । उनके ओठो पर तीक्ष्ण व्यग्य दौड गया । उन्होंने आपस में विचार किया-इस ढोगी गौतम' का अभिवादन और प्रत्युत्यान' नहीं करना चाहिये, क्योकि भिक्षु होकर भी यह वाहुलिक (परित्रही) है, तभी तो इसने उपवास छोड कर अन्न ग्रहण कर लिया, जो काया की रक्षा करेगा वह माया से कंसे मुक्त हो सकेगा ! एक ने कहा-फिर भी यह हम लोगो का पहले का साथी है, इसकी संवंथा उपेक्षा करना ठीक नहीं । निस्चय हुआ--आगे वढ कर इसका पाश्र-वीवर लेकर स्वागत नहीं करना चाहिये, क्योकि यह तपोभ्रष्ट परिब्नाजक है , केवल आसन रख देना चाहिये, बैठना चाहेगा तो चँठेंगा नहीं तो चला जायगा । अरुणोदय से जंसे शर्न शर्न अन्घकार मिटता जाता है बसे हो परिक्नाजक ज्यों ज्यो उन पब्चवर्पीय भिक्षुओ के निकट आता गया त्यो त्यो उनका अनादर भाव तिरोहित होने लगा । सन्मुख उपस्थित होने पर वे उसके तेज से अभिमूत हो गये । यह वही तेज था जिसके लिए कवि ने कहा है-विना सुलगायी सौम्य शिखाओ की आग 1 भिक्षुओ मे से एक ने आगे वढ कर परिन्नाजक का पात्र-चीवर अपने हाथो मे ले लिया, दूसरे ने आसन विछाया, तीसरे ने पादोदक पिंर घोने का जल) प्रस्तुत किया, चौथे ने पादकठलिका (पैर रगड़ने की लकडी ) ला रवखी । परिब्राजक भासन पर विराजमान होकर जब पर घोने लगा तब पाँचवें ने पर घूलाने के लिए पादोदक अपने हाथ में ले लिया । सेवा और सम्मान में सलग्न हो जाने पर भी पाँचो साथी परि- १. बुद्ध का जन्मकूल ।.. २... सम्मान के लिए खड़ा होना ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now