सामयिकी | Samayiki

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Samayiki by शांतिप्रिय द्विवेदी - Shantipriy Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ पेश हो गया [ प्रहतिपर बिनयपर विजय होती गयी, विशनने झक स्फ्तिं उन्नतिकी पर इस दौड़ धूपमें उन्नदिसे दाम छेनेश्म दग नहीं साया । समामका पुराना सोचा इस नये शनकों देमाछ... तहीं सक्। मौतिक सम्पत्तिकों शशि जीवनका मुण्यतम छथ्य सन गयी । यदि शाम्दिपूर्पफ ছল সহনং विचार कर छिया ज्याप कि जीवनक्ा रश्ष्य कया है तो घोष सब समस्याएँ सुसकझ जायें। सय श्न-विशन ठस छक्ष्यकी तिदविका साघन बनाया जाय, सो उसके प्रतिकूछ हों उतक्न परिष्याग कर दिया माय । मार्क्स और एस्रेप्सने एक उत्तर दिया। ठस उत्तरढ़ी भाषास सूमि अनास्मवाद है | यह मनुष्पके भोतिक हिठकी यात ही सोच सके | इसके भिद ठर्होंने समामप्रादको जग्म दिया । समाजगाद बहुत दूर तक जाता है। बह पैयक्तिक और सामूहिक जीवनफ्े प्रा3ः समो स्वर्रोको स्पर्श ऋरता है। इसीलिए उसमें शक्ति है। फिर मी यह श्रपूर्ण है। उसका दाशनिक आपार सुददद नहीं है, इसलिए यह पर्मसम्पन्षी शज्लका मयाथ उत्तर नरी दे पाता} गाशवीमराद ज्लीयन सग्दघो मोछिक प्रदनोंका उत्तर देता ही नहीं। उसका कोई भपना दाद्मनिक मत नहीं है, इसलिए उसमें सीमनके सब सङ्गमे एकीकरणद्धी, समम्वयको, शक्ति नहीं है। यह कुछ यातोंको गाय करके समस्याको सर करना चाहता है। _यह सान चुड़ानेम्म उपाय हो रध्धया है परन्तु इससे काम नहीं चलता । इमारे बहुपते प्रइन इसक्षिए. खड़े हो गये हैं कि आज मशीनें च्त रददी हैं | यदि गान्नीयाद्‌ জ্ঞা বীতসাা হী তরী मशीनें उठा दी जार्यंगो, विश्वविधालय मी प्रायः মন্হি ऐ जायेंगे | रेल, तार, कछ-क्ररखाने होंगेह्दी नहीं, মহন स्वत হম হী मायगे, पुराना ध्राग्प चीपन भा जायगा। पिछले हीन चार सौ पर्षोर्मि मनुप्पफ्ी जुद्धिने नो नम-स्पर्शेका प्रयास किया था उसड़ी दुस्य




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