कुन्दकुन्द - भारती | Kandkund - Bharati
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
496
श्रेणी :
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No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रस्तावना ध
प्राय: नहीं रही है । यही कारण है कि समस्त आचार्योके माता-पिता विषयक इतिहासकी उपलब्धि प्राय: नहीं
हु। हाँ, इनके गुरुओंके नाम किसी न किसी रूपमें उपलब्ध होते हैं । पश्चास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिमें जयसेना-
चार्यने कुन्दकुन्दस्वामी के गुरुका नाम कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव लिखा है और नन्दिसंघकी पट़ावलीमें उन्हें
जिनचन्द्रका शिष्य बतलाया गया है। परन्तु कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुडके अन्तमें अपने गुरुके रूपमें भद्रबाहु-
का स्मरण करते हुए अपने आपको भद्रबाहुका शिष्य बतलाया है । बोधपाहुडकी गाथाए' इस प्रकार हैं --
सदविआरो हुआ भासासुत्तेसु ज॑ जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णाणं सीसेण य भट्टबाहुस्स ॥ ६१ ॥
बारस अंगवियाणं चउदस पुव्वंग विउल वित्थरणं ।
सुयणाणि भटबाहू गमयगरू भयवओ जयओ ॥। ६२ ॥।
प्रथम गाथामें कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् महावी रने अथंरूपसे जो कथन किया हैं. वह भाषा-
सुत्रोंमें शब्दविकारको प्राप्त हुआ अर्थात अनेक प्रकारके दाब्दोंमें ग्रथित किया गया है । भद्रबाहुके दिष्यने उसे
उसी रूपमें जाना हैं और कथन किया है । द्वितीय गाथामें कहा गया है कि बारह अंगों और चौदह पूर्वोके
विपुल विस्तारके वेत्ता गमक गुरु भगवान् धतकेवली भद्रबाहु जयवंत हों ।
ये दोनों गाथाएं परस्परमें संवद्ध हैं । पहली गाथामें अपने आपको जिन भद्रबाहुका शिष्य कहा है
दूसरी गाथामें उन्हींका जयघोष किया है । यहाँ भद्रवाहुसे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही ग्राह्म जान पड़ते हैं
क्योंकि द्वादश अंग और चतुर्दद पूर्वोंका विपुछ विस्तार उन्हींसे संभव था । इसका समथन समयप्राभृत के
पूर्वोक्त प्रतिज्ञा वाक्य 'वंदित्तू सब्व सिद्ध'--से भी होता हैं । जिसमें उन्होंने कहा हूं कि मैं श्रुतकेवलीके
द्वारा प्रतिपादित समयप्राभतकों कहूँगा । श्रवणबेलगोलाके अनेक शिलालेखोंमें यह उल्लेख मिलता हूँ कि अपने
शिष्य चन्द्रगुप्तके साथ भद्रबाहु यहाँ पघारे और वहीं एक गुफामें उनका स्वर्गवास हुआ । इस घटनाकों आज
ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकृत किया गया है ।
अब विचारणीय बात यह रहती है कि यदि कुन्दकुन्दको अन्तिम श्रुतकेवली भट्रबाहुका साक्षात् शिष्य
माना जाता है तो वे विक्रम शताब्दीसे ३०० वर्ष पूर्व ठहरते हैं और उस समय जबकि ग्यारह अंग और चौदह
पूर्वोंके जानकार आचार्योकी परम्परा विद्यमान थी तब उनके रहते हुए कुन्दकुन्दस्वामीकी इतनी प्रतिष्ठा केसे
संभत्र हो सकती है और कैसे उनका अन्वय चल सकता है ? इस स्थितिमें कुन्दकुन्दको उनका परम्परा दिष्य
ही माना जा सकता है, साक्षात नहीं । श्रुतकेवली भद्रबाहुके द्वारा उपदिष्ट तत्व उन्हें गुरुपरम्परासे प्राप्त
रहा होगा, उसीके आधारपर उन्होंने अपने आपको भद्रबाहुका शिष्य घोषित किया हैं । बोधपाहुडके संस्कृत
टीकाकार श्रीश्रुतसागरसुरिने भी “भहुबाहुसीसेण' का अर्थ विशाखाचाय कर कुन्दकुन्दको उनका परम्परा
शिष्य ही स्वीकृत किया है । श्रुतसागरसूरिकी पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैँ--
भद्रबाहुशिष्येग अहृंदबलिग प्तिगपप्तापरनामद्रयेन विशाखा चायंनाम्ना दशपुर्वधारिणामे कादशा-
चार्याणां मध्ये प्रथमेन ज्ञातमु |
इन पंक्तियों द्वारा कहा गया है कि यहाँ भद्रबाहुके शिष्यसे विशाखाचार्यका ग्रहण हैं । इन विशाखा-
चार्यके अहुंदूबलि और गुप्तिगृप्त थे दो नाम और भी हैं तथा ये ददापूर्वके धारक ग्यारह आचार्योके मध्य प्रथम
आचार्य थे । भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे जैसा कि श्रुतसागरसूरिने ६२वीं गाथाकी टीकामें कहा है--
'पब्चानां श्रुतकेवलितां मध्येजन्त्यो भद्रबाहु:'
अर्थात् भद्र बाहु पाँच श्रुतकेवलियोंमें अन्तिम श्रुतकेवली थे । अतः उनके द्वारा उपदिष्ट तत्वको उनके
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