ज्ञानदान | Gyanadan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
178
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्ञानदान | १५
परन्तु वे थम गये और कुछ सोचकर वे बोले--“जीवन में जिस
समय भी मनुष्य आसक्ति को श्रम समभक पाये और निवृत्ति से
परम सुख का बोध उसे हो जाय, वेराग्य साधना के लिए वृद्धा-
बस्था की प्रतीक्षा करना परम सुख की उपेक्षा करना है... ...।””
उन्होंने कहा--“वृद्धावस्था में जो निस्तेज इन्द्रियाँ सांसारिक
सुख के स्थल साधनों को प्राप्त करने में असमथ हो जाती हैं,
वे निबंल इन्द्रियाँ बायु से भी सूदम आत्मा को और जल के
प्रवाह से भी अधिक प्रबल सनोधबिकार के वेग को किस प्रकार
रोक सकेंगी ? वे परमसुख के अत्यन्त सूचम साधन ज्ञान को
किस प्रकार प्राप्त कर सकेंगी ?'”--उस समय उनके कर्पना
नेत्रों के सम्मुख तपस्विनियों के जराजी णु; फल्रुमात्र, अरुचिकर
शरीर नाच रहे थे । उन्होंने कहा--“वृद्धावस्था का वेराग्य;
चासना के सम्मुख इंद्रियों का पराजय है परन्ठु यौवन का बेराग्य,
वासना पर इन्द्रियों की विजय है ।”'--इस समय यौवन का
ब्ात्म-विश्वास उनके विशाल वक्षस्थल में उमंग ले रहा था ॥
उन्होंने कहा-''जिस समय शरीर आओज आर रपन्दन की शक्ति
से स्फूर्ति का प्रकाश फेलाता है; वद्दी समय वासना से युद्ध करने
ब्गौर ज्ञान उपाजन तथा कठोर साधना का है ।”-उस समय
उनकी कल्पना के नेत्रों के सम्मुख सबल श्वास की गति से
स्पन्दित ब्रह्मचारिणी का वच्तस्थल था ।
प्रबचन समाप्त होने पर ऋषि लोग मध्याह् में कन्दमूल
का सेवन करने चले गये । ब्रह्मचारी नीड़क; अपने विचारों में
उलके, नदी किनारे पगडरडी पर चलते हुए नर्मदा तट पर जा,
नदी की लहरों का प्रहार सहते हुए एक शिलाखरण्ड पर बेठ
गये । ल्लुधा की अनुभूति ने उन्हें स्मरण कराया; यह समय कन्द-
मुल के सेवन का है. । शरीर की उस पुकार की उन्होंने चिन्ता न
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