बुक्का राय | Bukka Rai

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गुणवंत राय - Gunvant Ray

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श्यामू संन्यासी - Shyamu Sainasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र८ + बुक्काराय मुल्तान मुहम्मद तुग़लक देवगिरि में आरा बसा था श्र अपने दरवार के त्रमीरों त्रौर मलिकों मे मेल-सिलाप के प्रयत्नों में लगा इुश्ना था । ठुंगभद्रा को पारकर दक्षिण की सम्पदा को लूटने की अभिलाषा वह अपने मन मैं छिपाये हुए था | अपने मलिकों का वेतन चुकाने के लिए. उसे रुपयों की श्रावश्यकता थी, इसलिए; उसने दोरासमुद्र श्र श्रानेणुंडी के खूबों” के नाम इुंडियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं । वस्तुतः दोरासमुद्र और ्रानेणुंडी में मुहम्मद तुऱालक का कोई सूवा नहीं था । दोरासमुद्र में विजयधमंराज्य के महाकरणाधिप दादैया सामैया रहते थे श्र सामन्त था वीर बल्लभ । श्रानेगुंडी में सोमेश्वर सोलंकी विजयधमराज्य का दुगपाल था | लेकिन मुहम्मद तुऱालक को पूरा विश्वास था कि वह अपने मलिकों तर अमीरों के झापसी मतभेदों को मिटाकर दोरासमुद्र और श्रानेगुंडी में तपने तुरुष्क सूबों को नियुक्त कर सकेगा, और इसलिए. उसने वहाँ के फर्जी सूबों के नाम रुपयों के लिए हुंडियाँ लिखना शुरू कर दिया था | ये हुंडियाँ कुल मिलाकर बीस लाख अशर्फियों की थीं और मुहम्मद तुरालक का विश्वास था कि दोरासमुद्र और श्रानेमुंडी में तुरुष्क सूबागीरी कायम होते ही इंडियाँ सिकर जायेंगी श्रौर बीस लाख श्रशर्फियाँ मिल जायेंगी, जिनसे मलिकों की चढ़ी हुई तनख्वाहें चुकाई जा सकेंगी । उसे यह भी विश्वास था कि उसके मलिक तब तक प्रतीक्षा करते रहेंगे । देवगिरि के बहुत- से साहूकारों का तो इन डुंडियों को सिकारने का पेशा ही हो गया था ! इस प्रकार पुरुषाथ तऔर प्रयास, आशा और आकांक्षा, व्यवस्था तौर व्यवस्था, विप्लव श्र शान्ति, रायरेखा और दक्षिणापथ पर मुहम्मद तुरालक की फर्जों इंडियाँ, वीरवशिगों का विरोध आर सहयोग, प्रतिथ्वनि और चुनौती श्रादि पर विक्रम संवत्‌ की चौदहवीं सदी की अन्तिम दशाब्दी के अन्तिम वर्ष की सन्ध्या उदित होती है । विक्रम संवत्‌ १३६६ के श्राश्विन मास के कृष्ण पत्न की त्रयोदशी का--घनतेरस का दिन था आऔर....




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