सूर संदर्भ | Soor Sandarbh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १२ स्थल आदर्चोवादी और शुष्क नोतिवादी चिचारणा है वह काव्य के मूल्य न्करिएण में वड़ी हद तक बाधक हो रही है। किन्तु इस विचारणा से यह सारा युग आक्रान है। सूक्ष्म किन्तु जीवन की गहराई में स्थित स्थिर सनंपिंगों का उदघाइय ओर चित्रण क्या जीवन-परिस्थितियों की व्यापकता अर विस्तार का बदला नहीं चुका लेते; लोकधर्म, सर्यादा और शील के निरूएण की अपेता वाल्यकाठ की निर्दद क्रीड़ाओं, नटखटपन और नेसर्िक स्नेहोदु हस का चित्रा छूण और ग्राम्य तथा वन्य जीवन की सहज सुषपा का प्रदर्णन क्या काव्य और कला के लिए कम उपयोगी या उत्कर्ष- साधक हे ? प्रबन्ध और मुक्तक के बाहरी भेदों का आग्रह करने की अपेक्षा काव्य के अन्तरंग गुणों--रस की प्रगाढ़ता और उसकी मानस-प्रक्षालन क्षमता--की. परीक्षा क्या कल-विवेचन के लिए अधिक आवद्यक नहीं ? पर हम कब इन कार्यों में प्रवृत्त होते हैं ? कब तटस्थ होकर और आड़े आवेवाली आदर्शवादिता को किनारे रखकर, विद्ध मनोवैज्ञानिक दृष्टि से काव्यचर्चा करते हैं? मूरदास जी का सुरसागर केवल काव्य ही नहीं है, वह घामिक काव्य भी हैं। धार्मिक ग्रंथ की दष्टि से उसका सम्मान जन-समाज में तो है किन्तु विद्वानों के बीच अकसर इस विपय के विवाद उठा करते हें कि सूरसागर की गणना घार्मिक काव्यग्रंथों में होनी चाहिए या नहीं ? धामिक क्राव्य के सम्बन्ध में इन विद्वानों के विचार बहुत कुछ विलक्षण हैं। अधिकांश लोगों का ऐसा ख्याल है कि त्याग, संन्यास और वैराग्य की शिक्षा देने- वाली रचनायें ही धार्मिक काव्य कहला सकती हैं। इस दुष्टि से हिन्दी में कबीर और दादू आदि को ही धार्मिक कवि माना जा सकता है। तुलसीदास को हम इस श्रेणी में इसलिए स्वीकार कर लेते हैं कि उन्होंने भीति और मर्यादावद्ध राम के उदात्त चरित्र का चित्रण किया हैं। दोषांश में हम सूर, मीरा आदि की उन रचनाओं को भी धार्मिक काव्य कह लेते हैं जो भजनों के रूप में प्रचलित हो गई हैं तथा जिनम किसी चरित्र-विशेष का उल्लेख नहीं । किन्तु जब श्रीकृष्ण के और गोपियों के चरित्रों की बात गाती है तब हमारे विद्वान लोग पद्योंपेग में पड़ जाते हें। वे या तो कृष्ण-गोपी-चरित्र को आत्मा परमात्मा का रूपक कहकर टाल देते




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