कबीर - साहित्य की परख | Kabir Sahitya Ki Parakh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कबीर साइब और पूर्व वर्ती कवियों की रचनाएँ २१
है और इन्हें वहाँ पर क्रमशः 'संशयग्रस्त' एवं 'माया में निरत” बतलाया है 1”
परंतु फिर भी, इनकी कुछ रचनाश्रों के साथ कबीर-बानियों की ठुलना करने पर,
उन दोनों में कहीं-कहीं विचित्र साम्य भी लक्षित होता है । कबीर साहब इन सिद्धों
के सांप्रदायिक सिद्धांतों को मानते अवश्य नहीं जान पढ़ते और इसी कारण
उन्होंने इनकी आलोचना भी की है । किंठु जिन साधारण मंतव्यों के विषय में
उनका इनके साथ कोई स्पष्ट मतमेद नहीं उनके वणन में वे कभी-कभी इनका
उअनुकरण तक करते से जान पढ़ते हैं श्रौर वे इनके अनेक पारिभाषिक शब्दों को
अपनाने तथा इनकी श्रालोचनात्मक शैली को प्रयोग में लाने को भी चेष्टा करते
हैं । दोनों की रचनाओं में कहीं-कहीं एक ही बात विभिन्न शब्दों द्वारा कही गई
जान पड़ती है, कहीं पर उसे व्यक्त करने के ढंग में भी विशेष अंतर नहीं लक्षित
होता और कभी-कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि कबीर साहब ने किसी-किसी
सिद्ध-रचना का केवल उल्था मात्र कर दिया है।
सिद्ध सरहपा (विक्रम की नवीं शताब्दी) का एक दोहा उनके “दोहा कोष”
में इस प्रकार दाता है--
जहिं मण पवण ण सब्चरइ, रविससि साद्द पवेस ।
तहि बढ़ चित्त विसाम करु, सरहें कहिझ उएस ॥ २४५९
अर्थात् जहाँ तक मन एवं पवन की गति नहीं और जहां सूय एवं चंद्रमा का भी
ग्रवेश नहीं हो पाता, वहीं पर तू श्रपने चिह्न को विश्राम दे । रे मूर्ख ! सिद्ध
. सरहपा ने इस झ्पने उपदेश में उस स्थिति की श्रोर संकेत किया है जो श्रगम्य
. है, किंतु जो साधकों के लिए; परम झभीष्ट भी है। कबीर साहब ने भी झपनी
एक साखी द्वारा प्रायः वैसी ही स्थिति की श्रोर निर्देश किया है श्रौर यह भी कहा
हैकि मैं उसमें बराबर लीन रहा करता हूँ । वे कहते हैं--
जिहि बन सीह न संचरे, पंषि . उड़े नहीं जाइ।
_ हशैनि दिवस का गमि नहीं, तहां कबीर रहा ल्यौ लाई ॥१॥3
'व्र्थात् जिस बन (रहस्य मय परमतत्व की अनुभूति) तक सिंह (मन) की पहुँच
नहीं और जो पक्षी (प्राण का पवन) की पहुँच के बाहर है तथा जहाँ पर रात
१. 'कबीर अर थावली” (ना० प्र० सभा), सा० ११, प्र० ४ तथा “गुरु
अथ साहिब (भाई गु० दि सिं० श्रद्रतसर) राग सेरड वाणी १३, पू० ११६१
दोहाकोष” (कलकत्ता संस्कृत सीरिज्ञ, ९४), प्रृ० २०
३. 'क० अर ०” (ना० प्र० सभा) सा० १; प्ृ० १८
पगपाग
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