आधुनिक - हिंदी - साहित्य भाग दो | Aadhunik Hindi Sahitya Bhag Do

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कत्ताकी भारतीय परिभाषा और उसके सम्बन्ध भारतीय दर््रिकाण परम अ्रानन्दकी उपलब्धि, केवल अनुभूति ही नहीं, वास्तविक उपलब्धि, भारत के सभी धार्मिक सम्प्रदायोंका, सभी दाशनिक विचारधाराओं का चरम लक्ष्य हे । दूसरे शब्दोंम॑ परम तत्व, चाहे उसे ब्रह्म कहिए,, इंश्वर कहिए, शून्य कदिए, वा जो भी--यहाँ नामोंका कगड़ा नहीं है, श्रानन्द- स्वरूप है--रसो वे सः । गीतामें यही बात समकाकर कही गयी है-- विपया विनिवतन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवज, रसोप्यस्य पर॑दृष्टा निवतते ॥ निग्नदसे, विषयों श्रौर इन्द्रियोंके ्रसंयोगकी साधनासे विपय ते छूट जाते हैं, किन्तु उनसे मिलनेवाले रसकी लिप्सा दूर नहीं होती, वासनारूपसे बनी रहती है । कबतक ? जबतक परम रसका साक्षात्‌ नहीं होता । यतः वदद परम रस है श्रतः सारे रस स्वभावतः उसीमें ्रन्तभुक्त होजाते हैं। गीतामें ही ्रागे चलकर इसका स्पष्टीकरण किया है-- सुखमात्यन्तिकं यत्तदू बुद्धिग्राह्ममतीन्द्रियम्‌ । ( ५ र यस्मिन्‌ स्थिता न दुःखेन गुरुणा5पि विचाल्यते । ्र्थात्‌, श्रात्यन्तिक सुख इन्द्रिय सुखोंके परे, फलतः बुद्धिगम्य है, श्र वह सुख ऐसा है कि उसमें स्थित हो जानेवालेको भारी से-भारी दुःख भी विचलित नहीं कर पाता । इसी बुद्धिग्राह्म, बुद्धिगम्य सुखकी श्रभिव्यक्तिका साधन कला है । कलाकार द्रपनी कृति द्वारा उस परम रसका, उस द्रात्यन्तिक बुद्धिग्राह्म सुख का एफक़ मूत्त प्रतीक प्रस्तुत करदेता है । श्र, ऐसे प्रतीककी उपासना द्वारा, त्राघना द्वारा, सेवा द्वारा रसिक सहदय उस परमानन्दका स्पश पाता है। भारतीय दृष्टिकोणसे कलाकी यही परिभाषा होसकती है। हम केवल उसके लद्दंयसे ही यदद लक्षण नहीं बनारहे हैं । काव्यकी जो परिभाषा अपने श




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