किताबा-जैनमत-पताका | Kitaba Jainmat Pataka

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Kitaba Jainmat Pataka by विजयानंद सूरि-Vijayanand Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिद्धचकरके मददात्मपर उमदा लावनी. श१ द्रव्य सटकी सरधा आवे-समसवेगादिक पावे; पिना ये ज्ञान नहीं किरिया-जानदर्धनथी सम तरिया, ज्ञानपदारथ सातमे-पदमें आतमराम, रमता रहे अध्यातममाही-निजपद साधे काम, देखता धस्तु जगतसारी-पूजता रोग ठठे भारी, २ योगनी महिमा बहु जानी-चक्रथर छोडी सम नारी, यति दुद्यधर्म करी सोहे-मुनि श्रावक सब मन मोहे, कर्म निकाचित क्राटया-तपकुंठार करधार, नवंमापद जो करे क्षमासु-कर्म मूढकट जाय, भजों नवपद जगसुसकारी-जग्तमे नवपद जयकारी, ४ श्री सिद्धचक्र भजो भाइ-आचामल तप नव दिनठाई, पाप हिट योगे परीदरज्यो-भवी श्रीपारूपरे तरज्यो, ओगणीसें सतरासमे-जयपुर श्रीसुपास, चैत्रघबल पुनमदिने सुज-सफल हुई सम आस, बाल कहे ननपद छप प्यारी-जग्तमे नवपद जयफारी, ५ ( इति नचपद महात्मपर छावनी सपूर्ण ) [ एक कविके चनायेडवे शुरु भक्तिपर छोयर 1 घन्पहों सुनिराजली, जो सुय तजे ससारके» पाचों इद्रिय दमन किनी, पचमदातत थारके, आठ कर्मकों नाश करते, छफायाकों तारके, पाप भस्म करते अठारा, जीव अनेक उपारके, शीठको धारण किया है, काम रिषुफों मारके, न्यायरत्र विद्याके सागर, प्राज्ञ जिन दरवारके,




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