ढूंढक हृदय नेत्राजन | Dhundhak Hridaya Netrajan

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Dhudk Hrdaya Netranjan by विजयानंद सूरि-Vijayanand Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टंढनीनीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य, (१३) ~~ ---------------- ~~ --~--~ ~ -----------=-----~-------~ तो पिछे पीताबरीयोंने, मूत्तिमं परमेश्वरकी कल्पना किई हैं, यह केसे सिद्ध करके दिखलाती हे । क्यौ मंदिर, मूतत्तियोंतो, जारो वर्ैके बने हुये हे । ओर चारोबणं ( जाति , के रोक, अ- पना अपना उपादेयकी-मूर्तयोौको, मन दे रहः तो काद नीजीको, एक पीतवच्र वादी दिखाई दिये ? ( १७ ) एष्ट, १३९ मे-सूत्रका-अथे है, सोभी दूढनी । और--नियुक्तियां है, सोभी दृढनीही है । ओर सूत्रोकी-भाष्य, है सोभी दंढनीजी । अपने आप बनी जाती हुई, कहती है कि-तु- म्हारे मदोन्पत्तौकी तरह, पिथ्पाडिभके, सिद्ध करनेके छिपे, उषे कल्पित अर्थ रूप, गाल गरड निकरे छिय, नियुक्ति नामे, बडव्रद पोथे, बनारस्वे है, क्या उन्हें धरके हम बांचे ? | इत्यादि || १३॥ पाठकाण ! चतुर्देश पूर्व धर, किजो श्रुत केवली भद्र वाहु ¢ _@ न्रे (^) ¢^ ® 9 0 ® € ४ ২ स्व्राभीजी है उनकी रची हुई, नियंत्रित अथ वारी, नियुक्तियां, सो तो कल्पित अथके गोले, ॥ ओर अगदं নাহ ভিন, মীর पंडि- तानी बनने वारी, आजकलकी जन्भी हुई, जो दूंढनीजी है, उनके वचन, साता यथाथ-नियुक्तियां आर यथाथ-भाष्य अह क्या अपुत्र चातुरी, मूढोफे आगे प्रगट करक दिखती है ! ॥ (१८) ९8. १४४ में--लिखती है कि--मूरस्तिपूनाके, उपदेश- कौ, कुमार्भे गेरनेवारे हे ॥ १८॥ न 9 ०७ 0 ৬ ৬ | ৬২ পি কটি ৯৮৬ सूत्राथेके अंतप, यह अर्थ, जो दूंढनाजीने लिखा है सो, केवल मनः कलित, जूढ पणे ङिखा दै ॥ ( १८) ष्ट. ११९ में--लिखती है ।कि-मृत्ति-पृजा, मिथ्या- त्व, ओर, अनत संसारका हेतु ॥ १९ ॥




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