धर्म - इतिहास - रहस्य | Dharma Itihas Rahasya

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पं० रामचन्द्रजी शर्मा - Pandit Ramchandrajee Sharma

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प्रेमशंकरजी वर्मा - Premshankarji varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ 2 1 और रद्द जाता दे कि जैंसे-सेसे शक्कि को बढ़ाया जावे तो फिर किसी का भय नहीं रददेगां ! वास्तव में प्राकृतिक संसार में इससे '्च्छा कोई उपाप नहीं है, पर इसमें भी खिस को चेन नहीं मिलता । दिननरात अपनी शक्ति के बढ़ाने और दूसरों की शक्ति के घदाने की चिस्‍्ता घेरे रहती है, श्र जब चिपक्षी भी ऐसा ही करने लगता है तो यह चिंता बऔर मी चढ़ . जाती है । जापान, रूस, शूटेन फ्रांस भर 'प्रमेरिका में यही खींचा तानी प्रो रददी है । एक दिन चदद॒ भी शीघ्र हो श्राने वाला है जब कि समुद्र की मछुलियों 'घ्ौर स्थत्त के जीवों को पश्चिमी सम्यता मांस संपंघी ऋण चफ़ब्नद्धि प्याज सहित शुका देगी । चाहे चल बढ़ाने को चिंता कितनी दी घुरी सी पर जो ऐसा न. करेंगा वही समूख नष्ट हो जायेग्ग ! जिस सनुष्य ने प्रकत्ति से पर 'ांख उठाकर भी देखा है तो उसको एक ऐसी शक्रि का थी. श्रनुमव हुश्मा है जो 'प्रशान्ति से श्रनन्त शुनी शान्ति का समुद्र है, जो प्कत्ति की '्रश्मान्ति का संदुपयोग करके उसे शान्ति की ही सामग्री बना रही हैं, तो उसे उस समय झाशा ही आशा दिखाई देती हैं, सम्भव हैं क्षोगों को उस साहि का विश्वास वीसवीं शताब्दी में मीं न हु हो, पर इस रात कों तो वे श्रवश्य हो मानेंगे कि जब संप्ार में शान्ति सौजूद दै तो शान्ति भीं झवश्य ही होगी क्योंकि जब शीत है रो गर्मी भी झवश्य ही मौजूद है । संसार में जिस पदार्थ की जितनी, 'यावर्यकता हि चदद उत्तना ही शविक मौजूद है, यदि रोग एक है तो ्ौवधि भी शसंख्य हैं, जितनी वायु की थावस्यकता 5 उससे '्रघिक चाय मंदल भरा पढ़ा है । फिर यह कैसे हो सकता है कि सब से '्रावश्यक पदार्य शास्ति का भंडार पयों न होगा। पर जब संक उस शान्ति स्वरूप शॉ््धि के पास न जायें सब तक न सो शान्ति ही मिल सकती हैं न प्रुसि का लदपयोग ही हम जान सकते हैं । संसार में कोई भी अपने उपर दूसरे का 'ग्थिकार नहीं 'चाइता 1 इसी नियम के कानुलारं




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