बन्धन महासमर 1 | Bandhan Mhasamer 1

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Bandhan Mhasamer 1 by नरेन्द्र कोहली - Narendra kohli

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपने एकमात्र पुत्र के सुरक्षित जीवन के लिए इतने ही आंशंकित थे तो उन्हें नव-प्रसूता कुक्कुटी के समान अपने बच्चे पर पंखों को फैलाये, गर्दन अकड़ाये कुट-कुट करते हुए सशंक दृष्टि से इधर-उधर देखते हुए, पुत्र की रक्षा करनी चाहिए थी। और वे हैं कि उन्हें कभी पुत्र का ध्यान ही नहीं रहा”हाँ। देवब्रत को बताया गया है कि उनके जन्म के पश्चात्‌ जब माँ ने उन्हें भी गंगा नदी को सौंपना चाहा तो पिता ने माँ की बाँह थाम ली थी। माँ ने चुपचाप देवब्रत को पिता की गोद में डाल दिया और स्वयं घर छोड़कर चली गयीं प्रसंग को लेकर, देवव्रत के मन में बहुत बार ऊहापोह होता है, ती उन्हें लगता है कि शायद माँ ने इस घर को कभी अपना घर ही नहीं मांना। तभी तो इस प्रकार छोड़कर जा सकीं। नहीं तो अपना घर ऐसे छोड़ा जाता है क्या ? देवब्रत सोचते हैं तो अपने माता-पिता, दोनों को ही अदूभुत पाते हैं । पिता नारी-सौन्दर्य के मोह में बँधे, अपनी सन्तानों को मृत्यु की गोद में जाते देखते रहे-कुछ नहीं बोले । उनके लिए जीवन का एकमात्र सत्य, नारी-देह का आकर्षण ही है क्या ?”देवब्रत जानते हैं कि कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनके नर अपनी सन्तानों की हत्या कर देते हैं, पर तब उनकी मादा, उन नरों से अपनी सन्तान की रक्षा के लिए संघर्ष करती हैं। मादाओं में केवल सर्पिणी ही अपनी सन्तानों को खा जाती है। पर माँ सर्पिणी नहीं थीं । कैसी होगी देवब्रत की माँ ? कहते हैं कि माँ में देव-जाति का सौन्दर्य अपूर्व रूप में विद्यमान था। अलौकिक सौन्दर्य। तभी तो पिता अपने मोह और विवेक का सन्तुलन बनाये नहीं रख सके “लोगों का तो कहना है कि वे स्वयं शरीरधारिणी गंगा थीं, जो वसुओं को शापमुक्त करने आयी थीं। शायद ऐसा ही हो।”“यदि माँ ने अपनी पहली सन्तान को गंगा में डुबोकर, अपने भी प्राण दे दिये होते, तो सारी किंवदन्तियों के बावजूद देवग्रत यही मानते कि उनकी माँ, पिता के साध रहकर प्रसन्न नहीं थीं। इसलिए शायद वे नहीं चाहती थीं कि उनकी सन्तान सम्राट शान्तनु के महल में पले। किन्तु वे तो अपनी सन्तानों को जल-समाधि भी देती रहीं और चक्रवर्ती के साथ पत्नीवत्‌ रहती भी रहीं। शायद किंवदन्तियों में ही कोई सच्चाई हो कि वे स्वयं देवी गंगा थीं और किसी शापवश या किसी कर्तव्यवश भूलोक पर आयी थीं। नहीं तो मानवीय वृत्तियों को जीतना सहज है क्या। मानव-जाति की आज तक की सारी 'साधना क्या है-मानवीय सीमाओं का अतिक्रमण ही तो ! आज तक न काम को जीत पायी मानव जाति और न वात्सल्य को । पर माँ”'वात्सल्य की इतनी घोर उपेक्षा । किन्तु देवब्रत साधारण मनुष्य हैं । वे देवलोक के विषय में कुछ नहीं जानते । अतीन्द्रिय संसार से उनका कोई परिचय नहीं है। जन्मान्तरवाद का प्रत्यक्ष अनुभव उनको नहीं है। वे तो इस भौतिक समाज और मानवीय ज्ञान एवं तर्क की परिधि अनशन / 109




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