जीवन - यात्रा | Jeevan Yatra

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नरेन्द्र - Narendra

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श्रीमती रमादेवी जैन शास्त्री - Shrimati Ramadevi Jain Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न जोवन-यात्रा बिवाह आ गया. उसमें वह गई, मेरी माँ भी गई', आर मैं भी गया. वहाँ पंक्ति भोजमें मुकसे भोजन करनेके लिये आम्रह किया गया. मैंने काकाजीसे कहा कि “यहाँ तो अशुद्ध भोजन बना है. मैं पंक्तिभोजन में सम्मिलित नहीं हो सकता.' इससे मेरी जातिवाले बहुत क्रोधित हो उठे, नाना 'झवाच्य शब्दोंसे मैं कोसा गया. उन्दोंने कद्दा--'ऐसा आदमी जाति बहिष्कृत क्यों न किया जाय, जो हमारे साथ सोजन नहीं करता किन्तु जैनियोंके चौकोंमें खा आता है. मैंने उन सबसे हाथ जोड़कर कहा कि “शापकी बात स्वीकार है, शोर दो दिन रहकर टीकमगढ़ चला आया. वहाँ आकर मैं श्रीराम मास्टरसे मिला. उन्होंने मुके जतारा स्कूल का अध्यापक बना दिया. यहाँ मेरी जैनधर्म में और अधिक श्रद्धा बढ़ने लगी. दिन रात घर्मश्रवणमें समय जाने लगा. संसारकी असारता पर निर- न्तर परामश होता था. यहां कड़ोरेलालजी भायजी अच्छे तत्त्व- ज्ञानी थे. पूजनके बड़े रसिक थे. में कुछ कुछ स्वाध्याय करने लगा था आर ग्वाने पीने के पदार्थोंके छोड़ने में ही अपना धर्म समभने लगा था. चित्त तो संसार से भयभीत था ही. एक दिन हम लोग सरोवर पर भ्रमण करने के लिये गये. वहाँ मेने भाईजी साहबसे कहा 'कुछ ऐसा उपाय बतलाइये जिस कारण कर्मचन्थन से मुक्त हो सकँ .' उन्होंने कद्दा-“'उतावली करने से कर्मबन्धनसे छुटकारा न मिलेगा. मैंने कहदा-“झापका कहना ठीक है परन्तु मेरी ख्री और माँ हैं जो कि वेष्णवधर्म की पालनेवाली हैं. मैंने बहुत कुछ उनसे झाप्रह किया कि यदि आप जेनधर्म स्वीकार करें बो मैं ऋपके




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