साहित्यालोचन सिद्धान्त | Sahityalochan Siddhant

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Sahityalochan Siddhant by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्यालोचन सिद्धान्त [ ६ घ--संगीत कला श्रौर ड--काव्यकला की परिगणना होती हैं । इनमें क्रसशः सृत्ततत्त्य का हास होते-नेते अन्त में काव्य-कल्ला तक पहुंचते ९ मूत्ततत्व का स्वेधा अभाव हो जाता हैं। वास्तुकला में इ ट- पत्थर, चूना, घज्ली-चाँस व राजन के ओज़ार ये सच मूत पढाथ उसके आधार हैं । मूर्तिकला में सूर्तिकार की छुनी-हथीड़ा व प्रस्त“-खरड जिसमें वह आकार अंकित करता हैं मूर्त दृव्य हैं । इसी प्रकार चित्र फ्लतक, रंग, तूलिका आदि चित्रकला के दृश्य घ्याघार हैं, श्र संगीत में नाद का आरोदद या अवरोदद ही उसका मर श्ाधार होजाता है । हाँ, इतना है कि क्रमशः मुत्तेदव्य का ड्लास अवश्य हैं । सूत्त पदाथ के इस क्रमागत हास का कॉन्य- कला में आते श्राति त्िल्छुल अभाव, सा ही दो जाया हैं। दी कारण. हैं काव्य-कला का स्थान सर्वोय है। यहाँ इतना अवश्य समक लेना चाहिये कि काव्य-कला में जव केवल अथ की रमणीयत्ता रहती हैं, तब तो मृत ाधार का ास्तित्व नहीं रहता, परन्तु शब्द की रमशीयता आने से संगीत के सदश ही द सौंदर्य रूपी सूत्त आधार की उत्पत्ति होती दे । भारतीय काव्य-कला में, पाश्यात्य काव्यकला की अपेक्षा, . न्तर-रूप मृत्ते- ब्याधार की योजना अधिक रदती- है, परन्तु, अथ वी रमणीयता के समान इस काव्य का स्थिर घर्मे नहीं माना गया है । लॉसवकलाया का पास्पर सामजस्य प्रत्येक.कल्ला सानसिक भावनाओं का व्यक्तरूप उपस्थिव करती है । रालके 'मन की कल्पना 'ताजमदल” के रूंप में आज भी उपस्थित हैं । सूर्तिकार का मानस-विस्य सूर्ति में उत्तर आता हूँ । इसी प्रकार. सन के भाव तूलिका की नोक से चरस कर किसी 'आकृति विशेष को जन्म देते हैं, और क़ाच्य में वे ही भाव सान- '




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