खड़ी बोली के गौरव - ग्रंथ | Khadi Boli Ke Gaurava - Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ खड़ी बोली के गौरव-ग्रंथ वैमव-विहीना “संध्या के उदास वातावरण में कामायनी का विर्ह-वसान कितना स्वाभाविक श्रौर विपाद को घनीमूत करने वाला है आर कितसे थोड़े शब्दों में किस मार्मिकता से व्यक्त किया गया हैं। क्रिसी के बिरह-वणान में एक साथ श्राप सबा सो पृष्ठ काले कर दे तो इससे यह तो पता चल जायगा कि आप एक बात को फैलाकर कह सकतें हैं, या किसी के बियोग की कथ। को एक-से ढंग पर दस विरहिशियों के द्वारा व्यक्त करायें तो यह भी पता लग जायगा कि विरह एक प्रकार का दौरा है जो बारी-बारी कभी किसी को और कमी किसी को उठता है । महाकाव्य सें वणन के विस्तार का जो अधिकार प्राप्त है उसका तात्पयं यह कदापि नहीं है कि आप उसे ऐसा विस्तार कि वह अपना प्रभाव ही खो बेठे । पाठकों के सस्तिष्कों के पात्रों की भी एक माप है जिसमें अधिक रस डालने से उल्ललने लगता है। अधिक बिस्तृत बणन में सम-रसता नहीं रह सकती, अतः अच्छे कवि इस बात का ध्यान रखते हैं कि झ्पनी शोर से उचित परिमाण में ही किसी रस को पिलावें । अशोकत्रन् के नीचे बैठी सीता का बिरह-बशन कितना संयत है, कितना संक्षिप्त और कितना प्रमावशाली ! इसी सुरुचि का परिचय प्रसाद जी ने “स्वप्न” सग में दिया है । प्रकृति के प्रतीकों के सहारे कामायनी के न्नीण शरीर का आभास, प्रकृति के प्रसन्न वातावरण के सम्पक से पीड़ा की तीव्रता का अनुभव, अतीत की मधुर घड़ियों का स्मरण, थोड़े से आँसू और बालक के “मा” शब्द के उच्चारण से एक गहरा झ्राघात--द्ौर बस ! इड़ा आकर्षक है, प्रेरणामयी है । श्रद्धा ने उसे 'मस्तिप्क की चिर श्वृप्ति' कहा है। वह मनुष्य को स्वावलंबी बनाती है-- हाँ तुम ही हो अपने सहाय. जो बुद्धि कटे उसको न सान कर फिर किसकी नर शरण जाय जितने विचार संस्कार रहे उसका न दूसरा है उपाय यह प्रकृति परस रमशीय अखिल ऐश्वयंभरी शो वक विहीन तुम उसका पटल खोलने में परिकर कसकर बन कमंलीन सबका नियसन शासन करते बस बढ़ा चलो श्पनी क्षमता




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