भ्रमरगीत का काव्य वैभव | Bhramar Geet Ka Kavya Vaibhav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9.78 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अमरगीत-परस्परा शरीर सुरवास श्र
पूर्वे पीठिका
इसके पूर्व कि भागवत की भाँति उद्धव जी कृप्ण से मिलें श्रोर श्रन्तर्यामी श्रीकृष्ण
न्जवासियों के विरह-विषाद के उपचार हेतु ज्ञान का सदेश भेजें, ब्रज की दशा का
विस्तृत वर्णन सुरदास जी ने किया है । कृप्ण जी नन्द श्रादि के साथ मथुरा गये थे किन्तु
चापस नहीं लौटे । इसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है । सारा ब्रज सुना हो गया । क्षोभ, दुख,
दैन्य श्रौर विपाद का वातावरण व्याप्त हो गया । पहले तो यश्षोदा श्रौर गोपियाँ क्षब्घ हुई ,
नन्द पर श्र गोपियाँ कृष्ण पर । क्रम-क्रम से क्षोभ देन्य श्रौर विषाद मे बदला ।
गोपियो के पास कुव्जा का समाचार मिला । सुनते ही वे श्रागवदुला हो गई --
कुद्जा का नाम सुनत बविरह-श्रनल लड़ी
उन्हें बड़ी लज्जा इस चान से हुई कि उनके प्रियतम छृप्ण ने कुब्जा के लिए ही कंस
का वघ किया--
कस वच्यी कुचजा के काज
धर नारि हरि की न मिली कहूँ, कहा गवाई लाज ॥ *
न केवल गोपियाँ वरन् सभी ब्रज-वासी विरह विद्ञल होकर डुलते रहते है । सबके
सब श्रनाथ से होकर दयनीय दा मे होते हैं--
३ प्रब हम निपर्टाहू भई श्रनाथ ।
जैते मघृतोरे की माखी त्यो हम बिन न्जनाथ ।
श्रघर श्रमृत की पीर भुई हम, बाल दसा ते जोरि।'
सो छोड़ाय सुफलक सुत ले गयो श्रनायास हो तोरि ॥*
नन्द श्रौर यद्योदा बठे पछताते रहते हैं । यक्ोदा की उदवग्नावस्था चरम सीमा
को पहुंचती है। वे ब्रज छोड कर मथुरा जाने को उद्यत होती हैं--
६” नन्द ब्रज लीजे ठोकि बजाइ ।
देह विदा मिसि जाहि मधूपुरी जहें गोकुल के राइ ॥*
वे वसुदेव की दासी तक बनने को उद्यत है--
दासी हैँ चसुदेव राइ की, दरसन देखत रंहैं।
थी शक व
मोहि देखि क॑ लोग हूुँसेंगे, श्रर किन कान्ह हसे ।
सुर श्रसीस जाइ देहीों, जानि न्हातट्ठ बार खर्से ॥1*
मातृ हृदय की कसी श्रनूठी व्यजना है । स्वार्थ रहित सहज-वात्सत्य सुरतिमान है ।
संदेश
यशोदा जी झपने प्यारे कृष्ण के पास सदेद भेजती हैं । जो पथिक मथुरा जाते हुए
१८ सूरसागर, पद 9७६८
2 हक ३७५७०
डे ३७७८
७८६
श्र
श्ज 9८८
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