भ्रमरगीत का काव्य वैभव | Bhramar Geet Ka Kavya Vaibhav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अमरगीत-परस्परा शरीर सुरवास श्र पूर्वे पीठिका इसके पूर्व कि भागवत की भाँति उद्धव जी कृप्ण से मिलें श्रोर श्रन्तर्यामी श्रीकृष्ण न्जवासियों के विरह-विषाद के उपचार हेतु ज्ञान का सदेश भेजें, ब्रज की दशा का विस्तृत वर्णन सुरदास जी ने किया है । कृप्ण जी नन्द श्रादि के साथ मथुरा गये थे किन्तु चापस नहीं लौटे । इसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है । सारा ब्रज सुना हो गया । क्षोभ, दुख, दैन्य श्रौर विपाद का वातावरण व्याप्त हो गया । पहले तो यश्षोदा श्रौर गोपियाँ क्षब्घ हुई , नन्द पर श्र गोपियाँ कृष्ण पर । क्रम-क्रम से क्षोभ देन्य श्रौर विषाद मे बदला । गोपियो के पास कुव्जा का समाचार मिला । सुनते ही वे श्रागवदुला हो गई -- कुद्जा का नाम सुनत बविरह-श्रनल लड़ी उन्हें बड़ी लज्जा इस चान से हुई कि उनके प्रियतम छृप्ण ने कुब्जा के लिए ही कंस का वघ किया-- कस वच्यी कुचजा के काज धर नारि हरि की न मिली कहूँ, कहा गवाई लाज ॥ * न केवल गोपियाँ वरन्‌ सभी ब्रज-वासी विरह विद्ञल होकर डुलते रहते है । सबके सब श्रनाथ से होकर दयनीय दा मे होते हैं-- ३ प्रब हम निपर्टाहू भई श्रनाथ । जैते मघृतोरे की माखी त्यो हम बिन न्जनाथ । श्रघर श्रमृत की पीर भुई हम, बाल दसा ते जोरि।' सो छोड़ाय सुफलक सुत ले गयो श्रनायास हो तोरि ॥* नन्द श्रौर यद्योदा बठे पछताते रहते हैं । यक्ोदा की उदवग्नावस्था चरम सीमा को पहुंचती है। वे ब्रज छोड कर मथुरा जाने को उद्यत होती हैं-- ६” नन्द ब्रज लीजे ठोकि बजाइ । देह विदा मिसि जाहि मधूपुरी जहें गोकुल के राइ ॥* वे वसुदेव की दासी तक बनने को उद्यत है-- दासी हैँ चसुदेव राइ की, दरसन देखत रंहैं। थी शक व मोहि देखि क॑ लोग हूुँसेंगे, श्रर किन कान्ह हसे । सुर श्रसीस जाइ देहीों, जानि न्हातट्ठ बार खर्से ॥1* मातृ हृदय की कसी श्रनूठी व्यजना है । स्वार्थ रहित सहज-वात्सत्य सुरतिमान है । संदेश यशोदा जी झपने प्यारे कृष्ण के पास सदेद भेजती हैं । जो पथिक मथुरा जाते हुए १८ सूरसागर, पद 9७६८ 2 हक ३७५७० डे ३७७८ ७८६ श्र श्ज 9८८




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