समन्तभद्र - विचार - दीपिका भाग - 1 | Samantbhadra - Vichar - Dipika Bhag - 1

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Samantbhadra - Vichar - Dipika Bhag - 1 by जुगलकिशोर मुख्तार - Jugalakishor Mukhtar

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वीतरागकी पूजा क्यो ? ््द वस्तुत:ः अनेकान्त, भाव-अभाव नित्य-अनित्य मेद-अभेद आदि एकान्तनयोके विरोधकों मिटाकर, वस्तुतत्त्यकी सम्यक- व्यवम्था करनेवाला है. उसीसे लाक-व्यवहारका सम्यक प्रवतक है--बिना अनेकान्तका आश्रय लिये लॉकका व्यवहार ठीक बनता दी नहीं, और न परस्परका वैर-विरोध ही मिट सकता है। टसीलिये अनेकान्तकां पस्मागमका बीज आर लाकका अद्वितीय रू कहां गया है --वह सवोके लिये सन्मार्ग-प्रसर्शक है क । जैनी नीतिका भी यही मूलाधघार है । जो लोग अनेकान्तका सचमुच उ्ाश्रय लेते है वे कभी स्व-पर-वैरी नहीं होते, उनसे पाप नहीं यनते, उन्हें आपदाएँ नहीं सताती, और वे लोकसे सदा ही उन्नत उदार तथा जयशील बने रहते दे । न रे की ८ क्यों वीतरागकी पूजा क्यों जिसकी पूजा की जाती है बह यदि उस पूजास प्रसन्न होता और प्रसन्नताक फलस्वरूप पूजा करनेवालेका कोई काम बना देता अथवा सुधार देना हैं तो लोकमें उसकी पूजा साथक समभी जानी है । और प्रजास किसीका प्रसन्न हाना भी तभी कहा जा सकता चयाता यह उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उससे उसकी प्रसन्नतामें कुछ व्रद्धि होती हो अथवा उससे उसका काई दूसरें प्रकारका लाभ पर्दुचता है, परन्तु वीतरागदेवके विपय मे यह सब कड़ मी नहीं कहां जा सकता--ये न किसीपर प्रसन्न होते है, न प्रसन्न और न फफिसो प्रकारकी कोई इच्छा ही रखते हैं, जिसकी पूरति-झपर्तिपर उनकी प्रसन्नता-यम्रसन्नता निभेर के, नीति-विरोप-प्व्सी लोकव्यवहारवतक सम्यक परमासररा बीज मुतनैकगुरूअयत्यनेकान्त; ॥।




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