ज्ञानार्नव | Gyanarnav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
484
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)३
पहुंचकर श्री झुभचन्द्रमुनिको बडी नम्रतासे नमस्कार कर कुशलप्रश्न किया । पश्चात्, वह रसतुंबी
भैंट स्वरूप आग रख दी । मुनिने पूछा, इसमें क्या हे ?
मवददरि--इसमें रस भेदी रस हे । इसके स्पर्रसे तांबा सुवर्ण हो जाता है। बड़े परिश्रमसे
यह प्राप्त हुआ है ।
झुभचन्द्र--( तुंबीको पत्थरकी शिलापर मारके ) भाई ! यह पत्थर तो सुवणका नहीं हुआ ।
इसका गुण पत्थरम लगनेस कहां भाग गया १
भठदरि--अ( विरक्त होकर ) यह आपने कया किया? मरी बारह वर्षकी कमाइको आपने नष्ट-
कर दी । मे ऐसा जानता, तो आपके पास नहीं आता । ठुंबीको फोडकर आपने बुद्धिमानीका कार्य
नहीं किया है । भला, आप अपनी भी तो कुछ कला दिखाइये कि, इतने दिनों में क्या सिद्धि प्राप्त की हे ?
झुभचन्द्र -भेया ! कया तुम्हें अपने रसके नष्ट होनेका इतना रंज हुआ हे ? भढा, इस सुव-
णके कमानेकी ही इच्छा थी, तो घर द्वार किस लिये छोड़ा था? क्या वहां सुवण रल्लोंकी न्यूनता
थी । अरे मूख ! क्या इस सांसारिक दुःखकी निदत्ति इन मंत्र जंत्रों अथवा रसोसे हो
जावेगी ? तरा ज्ञान कहां चला गया, जो एक जरासे रसके ठिये विवाद करके मेरी कढा जानना
चाहता है । मुझमें न कोई कला हे; ओर न जादू ह । तो भी तपर्म वह शक्ति हे कि; अशुचिकी
घारसे यह पवत सुवणमय हो सकता है ।
इतना कहकर शझुभचन्द्रने अपने परके नीचेकी थोड़ी सी घूठ उठाकर पासमें पड़ी हुई उसी
शिछापर डाल दी । डालते ही चह विशाठ शिला सुवर्णमय हो गई । यह देखकर भर्ुहरि अवाक '
हो गये । चरणोंपर गिरक घोले, मगवन् ! क्षमा कीजिये । अपनी मूखतासे आपका माहात्म्य न
जानकर मंने यह अपराध किया हे । सचमुच मैंने इन मंत्रविद्याओंमें फंसकर अपना इतना समय
व्यर्थ ही खो दिया और पापोपार्जन किये । अब कृपा करके मुझे यह छोकोत्तर दीक्षा देकर अपने
समान बना लीजिये, जिसमें इस दुःखभय संसारसे हमेशाकें टिये मुक्त होनेका प्रयल कर स्कूँ ।
भवठुहरिकों इस प्रकार उपशान्तचित्त देखकर श्रीशुभचन्द्रमुनिने विस्तृतरीतिसे धर्मापंदेश
दिया । सप्तततत्व नवपदार्थोका बणन करके उनके हृद्यके कपाट खोल दिये । तब भर्तृहरि उसी
समय उनके समीप दीक्षा ठेकर दिगम्बर हो गये । इसके पश्चात्, भगवान झुभचन्द्रने उन्हें मुनि
मार्गमें दढ होनेके छिये तथा योगका अध्ययन करानेके ठिये ज्ञानाणव ( योगप्रदीप ) अन्थकी
रचना की, जिसे पढ़कर भर्ठृद्वरि परमयोगी हो गये ।
आचाय विद्वभूषणकृत भक्तामरचरित्रकी पीठटिकार्म झुभचन्द्रजीके विषयमें उक्त कथा मि-
ठती है । महाराज सिंहठके विषयम इतना कहनेको ओर रह गया कि, राजामुंज राज्यतृष्णा और
असूयासे उन्हें भी मारनेका प्रयल करन लगा । एकबार एक मदोन्मत हाथी उनपर छोड़ा; परन्तु
उसे उन्होंने बशमें कर ठिया । अन्तमें एक दासीके द्वारा जो तेलमर्दन करती थी, सिंहके नेत्र
फुडवा कर वह तूृप्त हुआ । उसी समय सिंहलके प्रसिद्ध पण्डितमान्य ओर यशस्वी भोजकुमारने
सपलटसफटटनपपपयपथथ
उज्यनीके पास एक भतेहरि नामकी गुफा हे। कहते हूं । भवुद्रिने उसी गुफामे घोर तपस्था की थी ।
२ श्रीमेरतुगसूरिने भी सिन्घुलके नेत्र फुडवानेकी बात लिखी हे । परन्तु उसमें भी सिंघुलकी उद्दंडताके
सिवाय और कोई कारण नद्दीं लिखा । एकबार मुंजने सिंघुलको अपने देशसे इसी उद्देडताके कारण निकाल
भी दिया था । भोजकों मारनेके लिये भेजनेकी और फिर उसका लिखा हुआ मान्धाता स महदी पति-
रित्यादि शोक पढ़कर उसके छिये पश्चात्ताप करनेकी बात मी मेस्तुंगसूरिने लिखी है ।
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