भारतदेश वैभव भाग 3,4 | Bharatesh - Vaibhav (Bhag - 3,4)

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Bharatesh - Vaibhav (Bhag - 3,4) by वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhman Parshwanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्व॒रयंवर संधि, की वि भरतजी सचमुचर्म पुण्यशाली महाला हैं । क्योंकि जिनके कारण से बढ़े बढ़े योगियोंकिं दृदयका भी झस्व दूर हो एवं उनको ध्यानकी तिद्धि द्वोकर केदल्यशी माह हो, उनके पुण्यातिशयरा वर्णन कया करें £ इसका एकमात्र कारण यह हैं छि उन्दें मादम है कि लात्म साधनकी पिषि क्या है ? परपदार्थोंर कारणते चेचल होनेवाले आता को उन विकल्पों इटानिका तरीका कया है १ उसी अनुभदका प्रयोग पाहुबलिके दल्यकों दूर करनेमें उन्दोंने किया । इसके भलावा दे प्रतिनित्य व. परमापाकों इस रूप स्मरण फरते हैं कि-- . हे परमात्मचू | आप पद़िले अल्पप्रकाशरूप धर्मध्यानसे प्रकट दोहे हैं । चितका नेमेस्य घटनेसे अत्याधिक उज्वरू प्रकाय रूप शुक्ुध्यानसे प्रकट होते हैं । इसलिए हे चिदंबरप्ररप ! मेरे हुदय्म बने रहो । इति-श्रेण्यारोहण सेचि ! नल (न अथ स्वयंवर संधि, भगवान बाहुबलिस[मी, अनेतवीय एवं कच्छ मदाकच्ठ योगि- योको केवलूज्ञान हुआ इससे भरतजी बहुत प्रसन्न हुए हैं । उसे स्मरण करते हुए लानंदसे अपने समयको व्यतीत कर रहें हैं । महादल राजकुमार व रतबल राजऊुमारका योग्य दयन बहुत वैभव साथ विवाद कर पितूदियोगके दुमखको मुढाया अपने दामाद राजइुमारोंसी एवं लपनी पुरियोंशो कभी रे दु कर उनको जनेरे दिएलट सेंएषि दूश्र सेजठे थे ३ पूस पषर बट लानंदू् भरहजीका समय जारहा ६ं ।




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