तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिकलंकार : | Tattvarth Shlokvartiklankar

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Tattvarth Shlokvartiklankar  by वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhman Parshwanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तला्धैविन्तामाणि ५ (~~~ ~ न ^ ~ ~ ~~ ^ ~~ ~~~ ~= ~ ~ ~~~ ~ ~~~ = न~ ^ ~~~ 4 ১ শশী শীত मोक्षका.कारण मानोगे ? या तत्चार्थश्रद्वानसे सहित होते हुए अहँत, साधु, तीर्थ, भादिके भक्तिसहित বন্ধ मोक्षका कारण मानते हो ? बताओ | यदि तचार्थश्रद्धानसे रहित कोरे देखनेको मोक्षमार्ग कहोंगे तब्र तो अतिग्रसग हो जावेगा अर्थात्‌ अभन्योके भी मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो जावेगी। वे भी प्रतिमाजी, तीर्थ, आचार्य, मुनि आदिका दर्शन करते हैं | कतिपय स्तोत्नोम जिनद्रदेवके दर्शनका अनेक बार होना बतलाया है। “ आकर्णितोपि महितोपि निर्सक्षितोषि “ इसाड़ि | किंतु भावशल्य होनेके कारण सम्फ्रादर्शनका बीज नहीं हो पका है। द्ब्यलिड्री, अभव्य समवसरणके अ्रीमण्डपमे साक्षात्‌ আন देवका दर्शन नहीं कर पाते हैं। किंतु अन्य स्थलेपर प्रतिमाजी, मुनि, तीर्थ आदिका दर्शन करते है। यदि दूसरे पक्षके अनुसार उस तत्तार्थश्रद्धानसें सहित होरहे चाक्षुष प्रसक्षको ऽस मेक्षका कारण मानेंगे तो वह तत्चार्थ-अद्वान ही मोक्षका कारण सिद्ध हुआ । उस तीर्थ आदिके दशन विना भी यदि तलार्थश्रद्धात विधमान है तो उसे मोक्षमार्गपना होनेगे कोई विरोध नहीं है | तत्तवार्थ-अद्वान रूप कारणके साथ मोक्षरूप कार्यका अन्चय व्यतिरिकसे काररकारणभाव है और चाक्षुपप्रलक्षकें साथ मोकषमागपनेका कार्यकारणभाव करलेमे अन्वयव्यभिचार, व्यतिरेकन्यमिचार दोनो द्रोप आते है | मठे ही पूज्य पंचपरमेष्ठीका ही नेत्रोसे दर्शन क्यों न हो | `, अर्ग्हणतीऽनरथधरद्धान्‌ विनिवारितम्‌ । कैसितारथन्धवच्छेदोऽथैस्य तचक्रिरोषणात्‌ ॥ ३ ॥ , - लक्षणस्य ततो नातिव्याति्ग्मोहवार्जितम्‌ ॥ परूपं तदिति ध्वस्ता तस्याव्याप्तिरपि स्फुटम्‌ ॥ ४ ॥ सम्यदीनके रक्षण ভূন अर्थपदका ग्रहण केसे अव््तुभूत अनथौके शरद्रानको सम्य- হাল নলনদধা विरेपर्प करके निवारण कर एरिया गया है | ओर अर्भका करिषण तल खगा देनेते कल्पित अथोके श्रद्भानको सम्यग्द्शन-हो जानेकी व्यावृत्ति कर दी गयी है । यद्यपि क्षाव्यों या प्रशंसावाक्योंमें खरूप कथन करनेवाले भी विशेषण देदिये जाते हैं | जैसे कि वह राजा दानी है, छीन है, विद्वान है | इन पदोसे भले ही कुछ साधारण पुरुषोसे राजाक्ी व्याबति हो जावे | किन्तु वे अमुक राजाके असाधारण धर्म नहीं है | अन्य राजाओं और सेठोमें भी पाये जाते है । किन्तु लक्षणको कहनेवाले वाक्यमें जो विशेषण दिये जाते हैं वे व्यर्थ नहीं होते हैं । अछक्ष्योंते रक्ष्यकी যানি ইলা শন विशेषणोंके देनेका फछ है | तिस कारण सम्पदर्भनके रुक्षणको अतिव्याति दोद नहीं लगा | वह सायदर्जन गुण तो दर्शनमोहनीय कर्मके उदयते रहित हुए आत्पाका स्वामाः बिक खरूप है | इस कारण तीनो प्रकारे सम्व्बनोमे रक्षणक चे जेते उप॒ रक्षका अव्यापि दोष भी सषटस्पते नए हो जाता है ।




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