सूर साहित्य नव मूल्यांकन | Soor Sahity Nav Mulyankan

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Soor Sahity Nav Mulyankan by डॉ. चन्द्रभान रावत - Dr. Chandrabhan Rawat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र सुरसाहित्य : नव सुल्याकन प्रकृति से परे है । परम तत्व में इच्छा, क्रिया आदि शत्रितयों का निवास हैं ! जगत परमतत्त्व का परिणाम हैं । सृष्टि क्रम में प्रकृति भी स्वीकृत हैं । त्रिगुण को भी स्वीकार किया गया है । मक्ति पर सभी बल देते हैं । भक्ति के क्षेत्र में सभी वर्ण, स्त्री, पुरुष समान भधिकार रखते हैं । चर्या (धार्मिक) भोर क्रिया (मन्दिर आदि का निर्माण) को भी सभी ने स्वीकार किया 1 पारिभाषिक दाब्दों में मी साम्य हू । बीज, मन्त्र , मुद्रा, न्यास आदि मी हैं । योग की सभी में चर्चा है । कहने की आवश्यकता नहीं कि भक्ति-संप्रदायों के दर्शन में मी ये तत्व या इनके संस्कृत रूप स्वीकृत रहे । शेवागमों पर आधारित अनेक संप्रदाय थे । दंकराचायें जी ने इनका भी खंडन किया । लिंगपुराण में पाद्युपतों की एक वैदिक शाखा का भी उल्लेख है : ये लिंग, रुद्राक्ष और मस्म धारण करते थे । यहीं मिश्र पाशुपातों की भी चर्चा मिलती है, जो पंचदेवोपासक थे । साघना और प्रतीकों की दृष्टि से तांत्रिकों को शाखा इन दोनों से भिन्न थी । इनके अतिरिक्त मी अनेक पाशुपत शाखाएँ थीं जो देश भर में फँली थीं । दशिण में शव-भक्त भी प्रमुख थे । इनमें से कुछ महाभारत और पुराणों से भी प्रमावित थे । कइ्मीर में शोव मत और पूर्वी भारत में शाक्त मत का विशेष प्रचार था । यों भारत के प्रत्येक गाँव में शिव भीर दक्ति के छोटे-बड़े मन्दिर अनिवायं रूप से मिल जाते हैं । २-वेदों को प्रमाण मानने वाले संप्रदाय और वैदिक मूल्य जिस प्रकार वेद-विरोधी नास्तिक संप्रदायों की वृद्धि हो रही थी, उसी प्रकार आस्तिक संप्रदायों की संख्या भी बढ़ रही थी । वेद को प्रमाण मानने वाले सिद्धान्तों में चाहे परस्पर मतंक्य न हो उनमें वेद-प्रामाण्य समान रूप से स्वीकृत था । समस्त भक्ति संप्रदायों की भी यही स्थिति है । अनेक देव, शाक्त, पाणुपत, गणपत्य, सौर आदि नामधारी संप्रदाय अपनी प्रतिष्ठा के लिए अपने को श्र_ति-सम्मत कहने लये । दार्शनिक दृष्टि से वेद-वेदान्त के अनेक माष्य प्रस्तुत किये गये । इनके द्वारा मुल दर्शन का प्रचार मी होता था और मुल दर्शन विकसित भी होता था । अनेक नवीन तत्त्वों का समावेश भाष्यीं के द्वारा मुल दर्शन में हो जाता था । साथ ही परिस्थितियों के अनुकूल कुछ विशिष्ट तत्त्वों का पुनराख्यान भी हो जाता था । इससे दर्दन जीवन्त बना रहता था । 'पुराण' एक दूसरी टी पद्धति से वेद-वेदान्त-सूत्र -चमंशास्त्र को प्रस्तुत करते थे । वे सूक्ष्म को स्थूल १. सर जान उडरफ, दादित एण्ड शावत, पु० २३३




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