दुर्गादास | Durga Das

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द्विजेन्द्रलाल राय - Dvijendralal Ray

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पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डृट्य । पद्दला अंक । ण््‌ समर ०--जाता हूँ दुगीदास ! और एक बात--केवल एक बात कहूँगा। में एक बातमें जनाबके पूवे पुरुष अकबरकी अपेक्षा जनात्र- पर अधिक श्रद्धा रखता हूँ । क्योंकि आप उनकी तरह मीरी छुरी नहीं हैं । आप खाठिस मुसढमान--सरठ गैँवार कइर मुसलमान हैं । आप उनकी तरह वब्याहके बहानेसे हिन्दुओंका हिन्दूपन नहीं नष्ट करते । सीधी, साफ ओर पैनी पुरानी मुसलमानी रीतिसे अपने धर्मका प्रचार करते हैं ।--कहिए, इसंसे मैं नहीं डरता । बस; अनुग्रह न कीजिएगा । जो अनुग्रह आप कर चुके हैं वही काफी है । बह अनुम्रह अभीतक हमारे सैंभाठ नहीं सैंभला । दोहा है, अव और अनुग्रह न दीजिएगा !-- ( प्रस्थान) ( तहव्वरखौका आग बढ़कर समरदासका राकनकी चढ्टा करना और औरंगजेबका मना करना । ) औरंग ०--दुर्गादास, तुम्हारी खातिरसे मैंने तुम्हारि बदमिजाज माइको माफ कर दिया | लकिन तुम्हां भाइने एक बात सच कटी । मैं मीठी छुरी और ढांगी नहीं हूँ । में भीतर और बाहर मुसलमान हैं | इस पुरांन मजहबकों फेलाने और बढ़ानेके लिए ही में इस तख्तपर बरेठा हूँ । तख्तपर बेठनेके पहले मैंने चाहे जो किया हो---बादशाह होनेके बादसे में इसी धर्मकी फकीरी कर रहा हूँ । दुगी०--इस बातकों मैं मानता हूँ जहाँपनाह !--उसके बाद भी अगर आपने किसीके साथ बुरा बता किया होगा तो युरे आदमीके साथ । सो तो कुछ अनुचित नहीं हे ।--इसको दयाकी दृष्टिसि उचित चाहे न भी कहें, लेकिन नीतिके विरुद्ध कभी नहीं कह सकते ।




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