सम्यग्दर्शन एक दृष्टि | Samyagdhrashan Ek Drishti Ac 4314

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Samyagdhrashan Ek Drishti Ac 4314 by रघुवीर शरण दिवाकर - RAGHUVIR SHARAN DIWAKAR

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about रघुवीर शरण दिवाकर - RAGHUVIR SHARAN DIWAKAR

Add Infomation AboutRAGHUVIR SHARAN DIWAKAR

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
ही दिया जाय या उनकी जगह दूसरे सिद्धातों को दी जाय । ये नियम व विधान उन्हीं मान्यताश्रों पर खडे हों जो सत्य हों, झथवा झंतरंग या श्ञाधारभूत सत्य वास्तव मे सत्य हों, विशुद्ध सत्य हो, सत्य से मिश्रित या बिक्त न हो, यह सबसे प्रधान श्ावइयकता है। इसके लिए कोरे बाहरी नियमों श्र विधानों को ही नहीं, शावइयक हो तो सिद्धान्तों शरीर मन्तव्यों को भी, बदलना श्रेयस्कर बल्कि अनिवायें है । खून का विकार बाहर मरहम लगाकर दूर नहीं हो सकता, उसके लिए तो झासव पीकर रक्त शुद्धि करना ही श्मावइयक है । यदि मूल में ही भूल हो तो उसे सुधारे बिना बाहरी बातों में कितना ही उलटफेर किया जाय, बह व्यथे है, श्रौर यदि व्यथें नहीं है तो अपरयाप्ति तो है ही । प्रश्न - कोई सिद्धान्त मले ही सत्य न हो लेकिन उससे मनुष्य को अच्छाई व नेकी का सबक या कतैव्य-पालन की प्रेरणा मिले तो उसमें झनौोचित्य या असत्य क्या है? उत्तर--असत्य विचारों या सिद्धान्तों को सदूगुरण्गों व सद्- पत्तियों का प्रेरक बना देने से पहली हानि यह है कि जो श्रसत्थ स्वमावत' ही भण्डाफोड़ या सबंनाश के खतरे में रहता हे, उसके साथ उन सदूगु्णों का भविष्य भी खतरे मे पड जाता है । उदा- हरणायथ, क्रयामत के दिन खुदा पापियों को सजा देगा, र पुर्या- त्माश्यों को पुरस्कृत करेगा, इस मान्यता को लेकर यदि कोई ईमानदारी, सच्चाई, वफादारी व नेकी को ग्रहण करे श्लौर यदि कमी खुदा की कयामत तथा उसकी न्यायप्रणाली की मान्यता पर से विश्वास उठ जाय, जेसा कि उसके कल्पना या परम्परागत या सस्कार-जन्य श्रद्धा मात्र पर अवलम्बित होने के कारण बहुत सम्भव है, तब ऐसी स्थिति में उस मान्यता के साथ सद्‌गु्णों का सम्बन्ध ४




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now