अपरिग्रहवाद - एक तुलनात्मक अध्ययन | Aprigrahvadah - Ek Tulanatmak Adhyan

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Aprigrahvadah -  Ek Tulanatmak Adhyan by रघुवीर शरण दिवाकर - RAGHUVIR SHARAN DIWAKAR

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ १ |] गिपनाशीद्) किए त्याग कौ वह्‌ पद्धति, जिने श्रत्व तयति अपनी घन सम्पचि या परिमरह अपने पुन्त, सम्ब'्धीया आय इष्ट उग्रक्तियों फो देकर निदृत्तिबादी वीतरागी” साधु यन जाय स्वग्रमेय भी इतनी मद्धान नहीं दे कि ওল নিহাথি माल लिया जाय या उसे आदइश के पद पर आसीन किया जाया निरचय ही इस त्याग रूपी अमृत में नौंगे मोह की तलबेट जमी हुए है। रिसि-बधुतत-स्यी साधुषम की दीक्षा लेते समय संतान था पर्ार का यह स्ंकीर्ए मोह उसके नव जीएन डी एक अमागलीक भूमिसा है। फ्स से कम जिस धन सम्पत्ति पर मीया निमी ख तियाध स्वामित्व है, उसका ऐसा स्याग मोह भारना দত से परे नहीं दे और इस अपेत्ता से बह शपरिमरदवाद भी मच्ची भायना ष #ति से दूर दे, यहुत दृर है । स्याग था दाने का अपना ए+ मूल्य है ओर नह मूल्य चमक छटता है यदि त्याग या दावे समाज फे लिये हो, मानवता हे लिये ही । आवश्यक से अप्रिक्र जो छुछ उस के पास है, जन हित के लिप उस का समप्रेण अथवा प्रसका समाजार्पण अपरिप्र5 লন पालन की परिस्थिति का निर्माण है, अपरिमदधाद या भाहूबाम है, वातावरण या प यु मेइल का शुद्धिकरण है, पर पह सत्यक्मी न मूला चाहिये কি सृल रूप से या सन्‍्चे अर्थों म श्रपत्पिदवाद को साथना ग्रढाँ नहीं दे। थद साधना आवश्यक से अविक परिप्रद स सप्रत्वी स्थिति में, जब तक यह स्थिति बनी रहती है. व्यवहार दी नहीं है। बह तो तब शुरू होती है जय व्यक्ति अतिनपरिभप्रह को या 'आवश्यकता से अधिक धन सम्पत्ति को समाज वी सेवा म अर्पित कर, कम से परम आवश्यक परिमद्द से सतोष कर, अधिर परिमद-पदरण नहीं करता दे अथया अविक परियह मित्र सकने को परित्थिति मं




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