आत्मधर्म [वर्ष 5] [अंक 2] | Aatmadharm [Year 5] [Ank 2]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उ्येष्ठे ! २५७१४ डिसीका ऐसा , छगता दे कि यह ते बहुत भारी बात हे, अपने से नहीं दे आत है, हे रह मनमें से निकाछ देना चाहिये | यह सवय' आत्मा को ही बात है, किन्तु अपरिचित देने के कारण कठिन मातम होती है; परिचय करे ते बिल्कुल सरल- समझ में आने येगग्य बात दे । केवल- ज्ञान प्राप्त करने में अनन्त पुरुषार्थ है इससे बह बड़ी वात है । किन्तु यह ते स़म्यग्दशन और सम्य- ग्ज्ञान प्राप्त करने की छेटी बात दे. केवलज्ञान की अपेक्षा इसमें अल्प पुरुषार्थ है । चैलन्यतत्व क्या है और नसका चिन्ह क्या दे-उसे स्वयं जाने बिना धर्म नहीं होता । जैसे अंक और भक्षर जाने बिना हिसाव नहीं लिख सकता बेसे ही चैतन्य का अक (चिन्ह) कया है नोर उसका अक्षर (जिसका नाश न हा वह) स्वभाव क्या हे- वह जाने बिना धर्म का दिसाव नहीं दाता शोर चैतन्य में स्थिरता नहीं देती । भढे ही. उपवास, भक्ति, व्रत, दानादि करे किन्तु चसमें कहीं भी आत्मछाभ नहीं है । अड्डे ! अपना स्वभाव कैप सद्दान महिमाबान्‌ है, वह कभी १ १०७ : रुचिपृवक सुना नहीं, जाना नहों, अन्तर में उसको सच नहीं की; इसके अतिरिक्त दया, दानादि सर्व प्रकार के झुभभाव कर चुका दे. किन्तु किंचित्‌ कत्याण नहीं हुआ, इससे यहेँ। कहते हैं कि सभी जीवों का स्त्रभाव झुद्ध परिपू- ण है | जा स्वत: अपने स्वभाव का अनुभव करे वद्दी जीव खबके परिपूर्ण स्वभाव के जान सकता हे भोर उचके ही. समभावरूप धम ह्वाता है । अपने में पूर्णता की हृष्टि में सभी जीव अपने स्वभाव से युद्ध हैं”-देखा ज्ञानी जानते हैं, इससे ज्ञानी के किसी पर के कारण राग-दूष सहीं । श्री झांसिनाथ, कुथनाथ, शरइनाथ-यहू... तीनों तीर्थ कर चक्रवर्ति थे, क्षायिक- सम्यग्द्दन के धारक थे, छदखण्ड का राज्य और इजारें रानियें का सयेग था एवं राग भी था किन्तु उसमें देयबुद्धि थी, एकताबुद्धि अदशमात्र भी नहीं थी, स्वभाव की दृष्टि से सममाद ही था । पर्याय के राग का ज्ञान था, छियों के और राजपाट इत्यादि के। भी जानते थे, किन्तु स्वभाव की एकता नहीं छूटती थी । स्वभाव की एकता के




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