मानवता की धुरी | Manavta Ki Dhuri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
198
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पूर्वाग्रह छोडकर, मानापमान को भी भुलाकर, एक सच्चे हितैषी के नाते
उन्होने इस विनाश को टालने का शक्ति भर प्रयास किया था । जब
सधि कराने मे सफलता नहीं मिली, युद्ध अनिवार्य हो गया, तब उन्होने
शस्त्र-ग्रहण नहीं करने की प्रतिज्ञा लेकर उस युद्ध में भाग लिया ।
वासुदेव का यही रूप उन्हे महाभारत के सभी पात्रों से ऊपर
उठा देता है । यही उनका व्यक्तित्व भीष्म-पितामह के व्यक्तित्व से भी
ऊँचा, आदरणीय और अनुकरणीय दिखाई देने लगता है । वे सहज ही
संस्तुत्य लगने लगते है |
कौरवों की सभा विशाल थी । उसमें अनेक महर्षि, महारथी और
पराक्रमी व्यक्ति उपस्थित थे, परन्तु उनमे एक भी ऐसा दूरदर्शी नहीं
निकला जो अपनी बुद्धि के जागृत होने का प्रमाण देता । जो समय के
सकेत को समझ पाता | प्राय वे सब दुर्योधन के अहंकार की आधी में
डगमगा कर, विकलाग की भूमिका निभाने के लिये अभिशप्त थे ।
उस सभा मे कोई क्रोधान्ध होकर नेत्रो की ज्योति खो बैठा था,
किसी को घमण्ड ने बहरा बना दिया था । कोई जन्मजात नेत्रहीन था
और किसी ने नेत्रों पर आ्कॉक्षाओं की पट्टी बाँध रखी थी । रिश्ते-
नाते कुछ को बधन बनाकर जकडे बैठे थे और कुछ की निष्ठाए व्यसन
बनकर समूचे वश को बलात् विनाश की ओर ढकेल रही थीं । लिप्सा ने उनमे
अधिकौंश का विवेक हरण कर लिया था । जो शेष बचे थे, व्यामोह की
बात-व्याधि ने उन्हे पगु या विकलाग बना दिया था । स्वस्थ्य
मानसिकता और सबल सकल्प-शक््ति उस सभा मे किसी के पास नहीं
थी । ऐसी दुराग्रह-ग्रस्त सभा मे वासुदेव की बात कौन सुनता ?
अंतिम प्रयास : विराट का दर्शन -
श्री कृष्ण उस कौरव सभा मे एक-एक के भीतर सोया हुआ
मानव जगाना चाहते थे । सबके विवेक को झकझोरना चाहते थे, परन्तु
जब उन्हे इसमें सफलता नहीं मिली तब उन्होंने उसी सभा में अपना
विराटू-रूप प्रदर्शित करके दुराग्रहो को तोड़ने का अंमित प्रयास किया,
परन्तु उससे भी कोई लाभ नहीं हुआ । क्षण भर के लिये दुर्योधन के मन
में भय तो व्याप्त हुआ, उसके माथे पर पसीना तो आया, परन्तु कृष्ण
के कौरव-सभा के बाहर जाते ही उसका आतंक समाप्त हो गया । दूसरे
मालवता की थुरी : ३
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