मानवता की धुरी | Manavta Ki Dhuri

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Manavta Ki Dhuri  by नीरज जैन - Neeraj Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस त्रासदी का शिकार कोई अकेला नहीं होगा। न मैं, न तुम, न वे। हम में से कुछ लोग ही उसके शिकार हों ऐसा भी नहीं है। पूरी मानवता इस त्रासदी का शिकार होने जा रही है। हम सब इस आत्मघाती वुत्ति की व्यथा से व्यथित हैं। इस विनाशक आतंक से आतकित हैं। हम सब के भविष्य पर विनाश के वे काले बादल मंडरा रहे हैं। यदि हम आज और अभी चेतते नहीं हैं तो एक दिन यह महाभारत भी घटित होकर रहेगा। तब हम में से कोई किसी की सहायता नहीं कर पायेगा, क्योकि जिस महाभारत की हम बात कर रहे है वह तो हमारे भीतर घटित होगा। चह हमारा नितान्त अपना, एक दम ' एक्सक्लूसिव्ह'' महाभारत होगा ओर उसके लिये हमारे पास होगे '' अपने-अपने क्रुक्षेत्र। ' आदये एक बार अपने भीतर झाँकने का साहस तो करें। कैसा है हमारा हस्तिनापुर-- आज हमारी देह ही हमारा हस्तिनापुर है । संशय में डोलता मन ही उसका सिंहासन है । अंधी वासनाओं का धृष्ट-धृतराष्टर न जाने कब से इस सिंहासन का अनधिकृत स्वामी बना उस पर शासन कर रहा है। दुराग्रह का दुर्योधन उसे पग-पग पर प्रभावित करता है, ओर स्वयं नीति की दिशा मे कहीं, तनिक भी, ज्ुकने के लिये तैयार नहीं है । दुराचार के दुःशासन ने आस्तिक्य की पांचाली को बड़ी पीड़ा दी है। बहुत अपमानित किया है। कुण्ठा का कर्ण बहुत कठोर बन बैठा है। समय की पुकार उसके कानों तक पहुंच ही नहीं पा रही। इससे बड़ी विडम्बना और हो भी क्‍या सकती है कि सूर्य का पुत्र, एक जन्मांध के बेटों की सेवा के लिये अभिशप्त है। उनके नियंत्रण में जी रहा है। विद्रोह का विकर्ण अकेला पड़ गया है। उसका स्वर बलात्‌ दबा दिया गया है। वह विवश गंगा बना बैठा है। पंचशील के पाण्डव यहां से कब के निष्कासित हो चुके हैं। संवेग की गांधारी, नेत्रवती होते हुए भी, दृष्टिहीन होकर जीने का संकल्प क बैठी है। उसकी आंखों पर ` आत्म-विस्मृति ' की पट्टी बँधी हुई है।




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