मानवता की धुरी | Manavta Ki Dhuri

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Manavta Ki Dhuri  by नीरज जैन - Neeraj Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पूर्वाग्रह छोडकर, मानापमान को भी भुलाकर, एक सच्चे हितैषी के नाते उन्होने इस विनाश को टालने का शक्ति भर प्रयास किया था । जब सधि कराने मे सफलता नहीं मिली, युद्ध अनिवार्य हो गया, तब उन्होने शस्त्र-ग्रहण नहीं करने की प्रतिज्ञा लेकर उस युद्ध में भाग लिया । वासुदेव का यही रूप उन्हे महाभारत के सभी पात्रों से ऊपर उठा देता है । यही उनका व्यक्तित्व भीष्म-पितामह के व्यक्तित्व से भी ऊँचा, आदरणीय और अनुकरणीय दिखाई देने लगता है । वे सहज ही संस्तुत्य लगने लगते है | कौरवों की सभा विशाल थी । उसमें अनेक महर्षि, महारथी और पराक्रमी व्यक्ति उपस्थित थे, परन्तु उनमे एक भी ऐसा दूरदर्शी नहीं निकला जो अपनी बुद्धि के जागृत होने का प्रमाण देता । जो समय के सकेत को समझ पाता | प्राय वे सब दुर्योधन के अहंकार की आधी में डगमगा कर, विकलाग की भूमिका निभाने के लिये अभिशप्त थे । उस सभा मे कोई क्रोधान्ध होकर नेत्रो की ज्योति खो बैठा था, किसी को घमण्ड ने बहरा बना दिया था । कोई जन्मजात नेत्रहीन था और किसी ने नेत्रों पर आ्कॉक्षाओं की पट्टी बाँध रखी थी । रिश्ते- नाते कुछ को बधन बनाकर जकडे बैठे थे और कुछ की निष्ठाए व्यसन बनकर समूचे वश को बलात्‌ विनाश की ओर ढकेल रही थीं । लिप्सा ने उनमे अधिकौंश का विवेक हरण कर लिया था । जो शेष बचे थे, व्यामोह की बात-व्याधि ने उन्हे पगु या विकलाग बना दिया था । स्वस्थ्य मानसिकता और सबल सकल्प-शक्‍्ति उस सभा मे किसी के पास नहीं थी । ऐसी दुराग्रह-ग्रस्त सभा मे वासुदेव की बात कौन सुनता ? अंतिम प्रयास : विराट का दर्शन - श्री कृष्ण उस कौरव सभा मे एक-एक के भीतर सोया हुआ मानव जगाना चाहते थे । सबके विवेक को झकझोरना चाहते थे, परन्तु जब उन्हे इसमें सफलता नहीं मिली तब उन्होंने उसी सभा में अपना विराटू-रूप प्रदर्शित करके दुराग्रहो को तोड़ने का अंमित प्रयास किया, परन्तु उससे भी कोई लाभ नहीं हुआ । क्षण भर के लिये दुर्योधन के मन में भय तो व्याप्त हुआ, उसके माथे पर पसीना तो आया, परन्तु कृष्ण के कौरव-सभा के बाहर जाते ही उसका आतंक समाप्त हो गया । दूसरे मालवता की थुरी : ३




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