मनोरंजन पुस्तकमाला भाग 8 | Manoranjan Pustakmala Vol - VIII

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Manoranjan Pustakmala Vol - VIII   by श्यामसुंदर दास - Shyam Sundar Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१ दे ) अनुराग था ।. वे सदा प्रजा-दहितकर कार्यों में लगे रहते थे, भ्रपने से बड़ें का सदा अर करते थे श्रौर बरावरवालषों के साथ सब्जनों जैसा बत्ताव कर उन्हें संतुष्ट रक्खा करते थे । युवराज होने पर भी उनका ध्यान श्पने शारीरिक सुख भाग की ओर न था । उनमें इतनी चमता थी कि वे चाहते तो लगें के साथ कठोर व्यवद्दार कर सकते थे, किंतु नद्दीं, उनके प्रत्येक कार्य में स्नेह श्रैर दया की मात्रा झधिक परिमाण में पाई जाती थी । साथ ही वे इतने नम्र भी न थे, जिससे उनके शत्रु उनकी ऐसी अच्छी प्रकृति से स्वयं लाभ उठावें । शत्र तो उनकी तेजस्विता को देख बहुत भयभीत हुमा करते थे । सारांश यद्द कि युवराज देबन्रत में ऐसे विरोधी युग का समावेश देख पुरवासी ध्रौर श्रन्य लोग विश्मित होते थे । दीनें के बंधु ब्रौर विपन्नों के सहायक देवव्रत को धर्माचरण श्रैर सदाचार का भ्नन्य भक्त देख लोगों की उनमें उत्तरात्तर श्रद्धा बढ़ती जाती । मद्दाराज प्रजा के लोगों से पुत्र की प्रशंसा सुन शभ्रपने को यथाथे पुत्रवान समक मन ही मन बहुत प्रसन्न होते एवं झपना भाग्य सराहदते थे । ऐसे सुयाग्य पुत्र के होते उनको राज-काज भी अब पदले से क्रम देखना भालना पड़ता था । उन्होंने सारा राज-क्राज पुत्र को सोंप दिया था श्रौर वे निश्चित हो समय बिताते थे । इस्र प्रकार चार बष बीत गए । एक दिन मद्दाराज शांतनु यप्ुनातट वर्ती एक वन में घूम फिर रहे थे कि इतने में




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