रवीन्द्र - साहित्य भाग - 1 | Ravindra - Sahitya Bhag - 1

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Ravindra - Sahitya Bhag - 1 by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो बहन * उपन्यास हू न ऐसी ही हालतमें उसने विरोध किया था, छुनेन नहीं 'ढी, नतीजा यह हुआ कि बुखार आ गया , और दाशांकके इतिहासमे उसका वर्णन असिट अक्षरोंसे ठिख गया । घरमें आरोग्य और आरामके ठिए दार्मिलाकी जितनी सस्नेह व्यग्रता है, वाहर सम्मान-रक्षाके ठिए सावधानी भी उतनी ही सतेज है। एक चप्रान्त याद आ गया । एक बार वह नैनीताल गया था हवा बदलने। पहले ही से पूरे सफरके ठिए शुरूसे आखिर तक रेखका डब्बा रिजब था । किसी जंक्शानसे गाड़ी बदलकर वह भोजनकी खोजमे चढ दिया । चापंस आकर देखा कि वरदी पहने एक दुर्जनमूर्ति उन्हें. बेदखल करनेकी फिराकसे लगा हुआ है! स्टेशन- सार्टरने आकर एक बविश्व-विख्यात जनरढका नास छेकर कहा; कमरा उन्हींका है; गछतीसे दूसरा नाम लग गया है। दाशांक आँखें फाड़कर वडी इज्जत दिखाकर दूसरे किसी कमरेमे जानेका इन्तजाम करने ठगा; इतनेसे शर्मिला गाड़ीसें चढकर दरवाजा रोकके वोल उठी--“से देखना चाहती हूं कौन हमे उतारता है ! बुढा लाओ अपने जनरलको ।” दाशांक अब तक सरकारी पदाधिकारी और उनके उऊपरवालोंके जाति-गोत्रवाों तकसे काफी बचकर चठनेसे अश्यस्त था। वह घबडाकर बोछा--“अरे; तुम कर क्या रही हो, और सी तो ड्व्ये है, जरूरत क्या है. बखेड़ेकी ।” शर्मिलाने उसकी बातपर ध्यान ही नहीं दिया । उअन्तमें जनरठ साहब रिफ्रंदासेण्ट- रूमसे खाना खतम करके चुरुट सुँहमे दिये निकले; और चर भ




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