आवश्यक - दिग्दर्शन | Aavashyak Digdarshan

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Aavashyak Digdarshan by अमर चन्द्र जी महाराज - Amar Chandra Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सानव जीवन का महत्व ज ही जीवन गुजार रहा था । उसे पता ही न था कि कोई श्र भी दुनिया हो सकती है। एक दिन त्हुत भयकर तेज झ्रंघड चला ओर उस शैवाल में एक जसह जरा-सा छेद हो गया । दंवयोग से वह कला उस समय वहीं छेद के नीचे गर्दन लम्बी कर रहा था तो उसने सहसा देखा कि ऊपर श्राकाश चाँद, नद्षत्र और श्रनेक कोटि ताराश्ों की ज्योति से जगमग-जगमग कर रहा है। कहुवा आनद-विभोर हो उठा | उसे श्रपने जीवन में यह दृश्य देखने का पहला ही श्रवसर मिला था । यह प्रसन्न होकर श्रपने साथियों के पास दौडा गया कि “ग्रातओ, मे तुम्हे एक मई दुनिया का सुन्दर दृश्य दिखाऊँ । बह दुनिया हमसे ऊपर है. रत से जडी हुई, जगमग-जगमग करती !” सब साथी दौड कर श्राए, परन्तु इतने में ही बह छेद श्रन्द हो चुका था ओर शेयाल का खण्ड ्ावरण पुनः श्रपने पहले के रूप मे तन गया था । वह कछुवा बहुत देर तक इघर-उधर टक्कर मारता रहा, परन्तु कुछ भी न दिखा सका ! साथी हँसते हुए; चले गए. कि मालूम होता है, ठुमने कोई स्वप्न देख लिया है ! क्या उस कछुवे को पुनः छेद मिल सकता है, ताकि वह चॉद दर तारों से जगमगाता शकाश-लोक श्रपने साथियों को दिखा सकें ! यह सब हो 'सकता है, परन्ठु मर-जन्म खोने के बाद पुनः उसका मिलना सरल नहीं है |” स्वयभूरमण समुद्र सबसे बडा समुद्र माना गया है, श्रसंग्ब्यात हजार योजन का लवा-वोडा । पूवे दिशा के किनारे पर एक जुत्या पानी में छोड दिया जाय, श्रौर दूसरी तरफ पश्चिम के किनारे पर एक कीली 1 पा कभी हवा: के सकोंको से लहरों पर तैरती हुई कीली नए के छेठ,मे अपने श्राप झाकर लग सकती है? सम दै व श्घदिति घटना घरि हो. जाय ! परन्तु एक चार खोने के वाद मनुष्य जन्म का फिर * ऐ अत्यन्त कठिन है !*? ' “कल्पना करो कि एक देवता पत्थर के स्तर्भ की पी तरह चूशं चना दे श्रोर उसे बॉस की गली में गाल कै




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