गहरे पानी पैठ | Gahare Pani Paith

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गहरे पानी पठ उलकखां बत्द बूमखां श्रपता ख़ुरासानो श्रौर श्रीमती चमगोदड़- किशोरी श्रपना ईरानी नृत्य दिखाकर श्रजोब समां बांध रहे थे ।”' पहले खंडकी लोकप्रचलित कथाओं और किंवदन्तियोंमें प्रायः देहलीकी बोलचाल और सभ्यताका परिचय मिलता है । कहानियोंका परिधान उसी क्षेत्रका है । दिल्‍लीके पास हूँ गुड़गाँव, रोहतक, नारनौल और दूसरे देहाती जिले, जहाँके जाटोंकी अक्खड़ सरलता अनेक परिहास- पूर्ण किवदन्तियोंका प्राण है । “'जाटकी कृतज्ञता' किस सरलतासे प्रगट हुई है” “अरे साव, तेरा चराग़्अली नाम किस मूरखने रखा हे ? तू तो मसालअली है ।”” 'जिंद,' 'नीलका भेंसा' और 'टिकिट बाबूका फूफा' जट-विद्या और जट-बुद्धिके मनोरंजक उदाहरण हें । इन कहानियोंके हास-परिहास और नीति-ज्ञानके पीछे जो जीवनकी भाँकियाँ हैं; लेखकने उन्हें अपने हृदयके शीझेमें उतारा है--वह पात्रोंके साथ हमजोली बनकर खेला है, हँसा हे और रोया है--या तल्लीनतासे उनका चित्रण किया है । पुस्तकका तीसरा खंड इस दृष्टिसि बहुत महत्त्व- पूर्ण है, क्योंकि मानवताके अनेक सजीव चित्र उसमें अंकित किये गये हें। देहलीके एक धनी सर्राफ़के निधन सम्बन्धी, जिन्होंने अपनी इज्जत बचानेके लिए गाँठकी गिन्नी सररफ़िकी गिन्नीके ढेरमें मिला दी थी; साधु- स्वभाव, निरक्षर बिहारीलाल जो जीवनके विषको इसलिए हँस-हेंसकर पीता रहा कि दूसरोंको सदा आदर और प्रेमका अमृत पिला सके; दो भाई जो एक दुसरेकी रक्षाके लिए फाँसीके तख्तेको चूमनेको तैय्यार हो गये; सुन्दर नामकी वह बुढ़िया हलालखोरी जिसने लेखकके जेलसे छूटनेपर दामन फलाकर दुआ दी और जिसने गदुगद होकर कहा--'मुबारक आज का दिन जो अपने जुध्याके हाथसे मुझे यह लेहना नसीब हुआ”, और वह मुंदी ऊधमसिंह, जिन्होंने २०० रु० की असहथ रकमका “चुपचाप घाटा इसलिए उठा लिया कि किसी निरपराध मनुष्यपर उनके कारण कहीं कुछ




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