नीतिवाक्यमृतम | Niti Vakya Mritam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक अमृल्य सम्मति [ प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में 1 श्री० विद्वद्वय्य॑ पं० रणजीतसिंह जी मिश्र, व्याकरण व साहित्याचायं, वाराजसी शादूलविक्रीडितच्छन्दः पस्थादो लखितं पद॑ च सतत नोतिस्सवाचारभाक । यस्थान्ते हि सुझोमतेड्सूतप सब्ये तु वाक्यप्रवं ॥ ररचितो प्रत्योध्यमन्वयं भाक्‌ । नेवाधापि कृता विदिष्टकृतिमा टीका मनोहारिणी ॥१॥ कोकान्योवय सवा विमोहितथियों ग्न्यावबोधं बिना । तदृप्रन्याध॑विदेषवणनपरा भावार्थजोधे कमा ॥। शीमत्सुम्वरसालसोम्पत्रिवृषा टीका हि भाषा कृता । यत्रत्यां च निरोक्ष्य बोधनकलां चिसे प्रमोदों महान २० अत्रर्यं चिपुल श्रम मुधवरे पाण्डित्यरूप तथा । लोकानामुपकारिणीं सुरूलितां युक्ताथंसंबोधिनीं । नष्यों सबंजनप्रियां गुणवर्ती टोकों समालोक्य च । आ्रीमत्सुन्वरलालविज्ञनिपुणों योग्यो मतों माहनां ॥३॥। बंदास्थवृत्तस इयं हि टीकाइध्ययनानु रागिणां विवेकहेतु: प्रतिवादक्संणां । सबोपकारं सुददढ़ं विघास्यति मत समीयीनसनारतं सम ॥४॥। भथें--अभी तक किसी भी विशिष्ट विद्वानु ने श्रीमत्सोसदेवसूरि के 'नोतिवाक्यामूत' ग्रन्थ की, जो कि सार्थक नामंशाली है, चित्त को श्रमुदित करनेवाली भाषा टीका का सुन्दर प्रणयन नहीं किया ॥१॥। जन-समूह को 'नीतिबाक्यामूत' के ज्ञान के बिना, भर्थात्‌--नैतिक ज्ञान के बिना सदा भअज्ञानी देखकर सौम्य प्रकृतिशालो भ्रीमत्वु्दरलाल शास्त्री द्वारा ऐसी भाषा टीका का ललित प्रणयन किया गया है, जो कि म्म्थ का सही अर्थ विशेष रूप से निरूपण करने में तत्पर है और भावायथं प्रकट करने की क्षमता रखती है। जिस टीका की समझाने की कला देखकर निस्सन्देह हमारे चित्त में विशेष भाल्‍्हाद (हुषं) हो रहा है ॥२॥ इस प्रशस्त कार्यें संबंधी प्रचुर परिश्रम भर टीकाकार की विद्त्ता देखकर एवं जन-समूह का उपकार करनेवाली, नवीन, सबंजन-समूह को प्यारी और गुणदालिनी भाषा टीका देखकर श्रोसुस्दरलालजी शास्त्री विद्वानों में निपुण हैं और हम सरीखे विद्वानों द्वारा सुयोग्य विद्वान माने गये हैं ।! रे हमारी यहू समीचीन व निध्चित मान्यता है कि यह भाषा टीका, इसके अध्ययन करने में अनुराग करनेवालों के शान में निमित्त होगी तथा वाद-विवाद करनेवालों या वक्‍्तृत्व कला सीखने वालों का सदा हढ़ उपकार करेगी ॥४॥।




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