श्री कृष्ण चरित अर्थात श्री रुक्मिणी मंगल | Srikrishna Charita Arthata Sri Rukmini Mangal

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Srikrishna Charita Arthata Sri Rukmini Mangal by पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) कर कृपा गुरू ने यह विद्या मुझको है बेटा, सिखलाइ । गुरु कपा मिली जिसको, उसने क्या सिद्धि नहीं जग में पाई ॥ हर रोज बना सकती हूँ में जितना चाहूँ उतना सोना । चोसठ वर्षों से नियम यही, छानो धरती कोना-कोना घनपत ने हर्पित हो मन में, घर में रक्खे बतेन धोकर । बाबा से बढ़कर बुटिया के आदर में सेठ हुआ तत्पर ॥ भीतर पलंग एक उलवाया । नरम बिछीना भी विछवाया ॥। मादर बुटिया वहाँ लिटाइे । पेर दबाने लगी. लुगाई संध्या समय बनाई ब्यालू । तुरे, भिंडी, परवल, झलू ॥। तरदद-तरदह की सब तरकारी । पूरी हलया खीर सवारी ॥ सब सामग्री यह प्रथम ले घनपत के दास । भक्ति सहित श्रद्धासहित आये बुटिया पास ॥ बुद्धिया ने भी तुरत ही सोने के अनमोल । फेर निकाले सेकड़ों बरतन भकोली खोल ।। अलग-अलग सामान सब उनमें लिया रखाय । पीछे पहले की तरह दिए सभी फिकवाय । धनपत ने आनंद से. भरे कोठरी बीच | भक्ति भुलाइ लोभ ने उसे बनाया नीच ॥।




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