गरीब | Garib

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Garib by भगवत जैन - Bhagvat Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रारीब [१३4 एस ल०--( अपनी ही घुन में ) हाँ, और यह ध्यान रहे--पत्थर के अक्षर दो इंची से कस मोटे न हों । ताकि सब श्ांसानी से पढ़ सकें । समभे, दो इंच मोटे । सब--( सिर नवाकर ) जी, सवा दो! केसी बात कह रहे हैं आप ? (जाते हैं ) त्रिलो०--( प्रवेश कर, स्वतः ) यहाँ वष-गॉठ मन रही है । उधर मेरे नौनिहाल की जीवन-गाँठ खुली जा रही दै । विधाता ! क्या तय किया है तूने ? या तो दरिद्रता की ज्वालों से अब बचाले ! या एक दम जलादे. तिल-तिल जलाने वाले ॥ ( स्वगत पैरों की ओर इशारा करते हुए ) बढ़ो, आगे बढ़ो, वैभव के द्वार तक पहुँचो । सुनानी है वहाँ करुखा जनक दुर्भाग्य की गाथा 1 सुकाना स्वाथ के चरों में अपना श्राज है माथा ॥। जिया ! तू क्यों काँप रही है ? वाणी तू क्‍यों मूक दो रही है ? मिमक, संकोच को छोड़, अभय होकर भीख माँग । विधाता ने यददी लिक्खा है इस फूटे-मुकद्दर में । दिया था जन्म इसही वाह्ते घन-द्दीन के घर में ॥। ल०--( द्प के साथ ) कौन है ? त्रिलो०--( दीनता पूवक ) एक रारीब, बदनसीब । ल०--( तेज़ी से ) किस लिए श्राया है यहाँ ? किसने श्राने दिया तुमे ? त्रिलो--( गिड़गिड़ाते हुए ) दया की भीख माँगने 'आाया हूँ । ग़ारीब--पहरेदारों ने रदमकर झ्राने दिया है सेठजी ! नाराज न टूजिए ! मुसीबत से घिरा हूँ, तंग दस्ती का सताया हूँ । मदद हो जाय कुछ इस ही लिए चरणों में '्याया हूँ ॥




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