गुरुकुल - पत्रिका | Gurukul - Patrika

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Gurukul - Patrika by इन्द्र विद्यावाचस्पति - Indra Vidyavanchspati

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about इन्द्र विद्यावाचस्पति - Indra Vidyavachspati

Add Infomation AboutIndra Vidyavachspati

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
२००६ वे है, यथा--श्रह्ट, पश्व, क्लठ, पन्‍्थ, खम्भ श्रादि श्रौर श्रन्तस्थ तथा ऊष्म के किसी वण के पढले श्रनुनासक ध्वनि श्राती है तो उस से पहले श्रच्र में श्रनुस्वार लगाया जाता दे--इनके पश्चम वर्ण नददीं हैं | इस से भिन्न, किसी वग का पश्चम वें शनुनातिक ध्वनि के लिए किसा श्रन्य वग श्रौर श्रन्तस्थ व ऊष्म के श्रच्रो में नहीं लगाया नाता श्रौर वैसा करना नितान्त श्रशुद्ध माना जाता है । किन्तु परिस्थितिवश मुद्रणा दि में पश्चम वश के बदले श्नुस्वार से काम चला लेना विकल्प स्वरूप चल पढ़ा है । परन्तु देखने में श्राता है कि इस छूट के कारण नियमादि को परवाह किए बिना श्तु स्वार का प्रयोग खुल कर होने लगा हे । यही नहीं पाचों सानुनासिक व््यों के प्रयोग में भी निवमोल्लड्न आन खूब नोरों पर है, जिसके परिणाम स्वरूप रन्क, ०पन्जन, पर्डित, सम्बाद्‌ श्रादि लिखा छुपा मिलता है । कमी कभी श्रद्ध न (5) का श्रनुचित प्रयोग भी पाया जाता है | रूच पूछिये तो श्रद्ध॑ न का प्रयोग इतना श्धिक बढ़ गया है कि कुछ ठिकाना नहीं श्रौर द्रतगति से चद श्रब अनुस्वार का स्थान भी लेने लगा है, क्योंकि मुद्रद में इसका प्रयोग झनुस्वार क। श्रपेक्षा सरक है । ऊ जे पत्चम वर्यों के स्थान में यद इस लिए. श्धिक वर्ता जाने लगा है कि टाइप कतो मे इन से बने युक्त।/ क्र कभी-कभी नहीं मिलते हैं तौर इस लिए, भी, कि उन्हें हटने के भभट से छुट्टी मिलती है । कदाचित पू्णों रूप में इनका काफी उपयोग न दाने श्र तथा कथित क ठिनाई सन्मुख श्ाने के कारशु ह! डज को ब्णमाला में से निकाल देने की चर्चा चल पढ़ी है जिसका झ्िर्थ है क्व्ग, चवर्ग को लेंगढ़ा चना देना, बर्णमाला के क्रम में बिन्न डालना श्रीर तत्सम्बन्धी लेखन नियमों को बेकार कर देना | यदि इन वर्खों का प्रयोग किसी कारण घट मा है तो उस कारण को दूर करना चाहिए न कि इनको ही बहिष्कृत तेईस नागरी लिपि में सुधार कर देने का विचार लाया जाना चाहिये, इस प्रकार तो एक दिन ण॒ का छोड देने की आारी भी शा सकती है । पश्चम वर्ण का छोड, प्रत्येक वर्ग के वर श्रलप- ग्राय श्रौंर महाप्राण वे क्रम से हैं । शल्प प्राणों के द्वित्वाचर तो काम श्रात॑ हैं परन्तु महाप्रादों का दित्व नहीं होता नहा ऐसा प्रतीत होता है वहा उस महा- प्राण में उस से पदला श्रल्पप्राण हो र युक्त दोता हे, यया-रक्खा, बग्घा, श्रच्छा मर्कर, कप्या, शुद्ध, गुष्फा भन्मर श्रादि. परन्तु इस नियम के विरुद्ध बच्ची गुफ्फा श्रादि था लखा देखने में श्राता दे । अल्प शिक्षित श्रथवा नव सिखुए दी ऐसी भूल करते द! सो बात नहीं । बल्कि कोई टाइद फाउश्ड्री भी श्रल्पप्राणों के द्वि्वाद्रों की भाति हो मदाप्रास्तों के द्विष्वाच्र भी टाल रही दे श्रौर श्रावश्यकता श्रनाव- श्यकता का बिना विचार किये क्र अर श्रादि की भासि दीन के साथ सयुक्त, प्रायः सभी व्यज्नों के युक्ताचर बना रही दे । महाजन महोदय ने सरस्वती नवम्बर ५१ में झशुद्धियों वे विघय में क्या ही श्रच्छा लिखा दे कि पाठक श्रव इतने समभदार दो गये हें कि वे सकेत मात से हा लेखक का श्रमिप्राय ताढ जते हैं। अ्शुद्धिबी की कुछ परवाह नहीं करते | इसी लिप लो लेखकों श्रौर प्रकाशक का मुफ्त की सिर दर्दी से छुटकारा मिला है श्रौर प्र सा में प्र.फ रीडर रखने के व्यय को. श्वपन्यय समझा जाता है, कम्पोज़ाटरों को भी अधिक सावघाना की झावश्यकता नददी,रही । ऐसी श्वस्थ। देख कर कहां जा सकता है कि साधारण सेंत्रो में हिन्दी मुद्रख का स्टेटडडे निम्न स्तर पर का रहा है | क्योंकि कौशल -द्ोनता 'झौर नियम विह्वीनता के झ्नेक उदाइरया सन्मुख्व श्राते रहते हैं | नागरी का क्ेत्र दिन्दी माषा श्रौर कुछ प्रदेश तक




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now