प्रेमघन - सर्वस्व भाग - 1 | Premaghan - Sarvasv Bhag - 1
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
674
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २१ )
छाई जिन पर कुटि् कटीली बेलि झ्नेकन ।
गोलट गोली भेदि न जादि जाहि बाहर सन ॥
दूसरे स्थान पर कवि 'मकतबखाने” का बड़ा ही चित्ताक्पक
चरण न करता है--
“पढ़त रहे बचपन में हम नहें निज भाइन सँग !
भनहूँ बाय सुधि जाकी पुनि मन रेंगत सोई रंग ॥।
रहे सोलबी साहेब जहूँ के शझ्तिसय सज्जन ।
बुद़े सत्तर बत्सर के पे तऊ पुष्ट तन ॥
इसी प्रकार “झलौकिक लीला' काव्य में भक्ति रस में लीन दो
कर कवि ने कृप्शचरिव का बण न वड़े मनोद्दर व्योरों के साथ
किया है ।
स्रोधरी साहब स्थान स्थान पर शझ्नुप्रास श्र बर्यमेत्री
गद्य तक में चाहते थे । पक बार श्ानल््द-कादस्बिनी के लिए मैंने
सारत बसंत नाम का एक पयबद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत
के प्रति बसंत का यह वाक्य उपालम्भ के रूप में था--
बहु दिन बहि बीते सामने सोइ झायो ।
गरलि गजनबी ते गवं सारो गिरायो ॥
दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बहुत श्राई पर उन्होंने उदासी के
साथ कहा--“हिन्दू होकर झाप से यह लिखा कैसे गया” ?
वे कलम की कारीगरी के कायल थे । जिस काव्य में कोई
कारीगरी न हो वह उन्हें फीका लगता था । एक दिन उन्होंने पक
छोटी सी कविता झापने सामने बनाने को कहा, शायद देशदशा
पर । मैं नीचे की यद्द पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लग--
“विकल सारत, दीन आरत, स्वेद गारत गात ।”
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